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"अभिज्ञान शाकुन्तलम्" में 'अभिज्ञान' शब्द
0 गोपाल शर्मा
"अभिज्ञान शाकुन्तलम्'' (अभि---ज्ञा+ल्युट) का अर्थ शकुन्तलाया: अभिज्ञानम् अर्थात् शकुन्तला की पहचान है। नाटक के अभिधान से सिद्ध होता है कि यह कृति प्रेम-परक नहीं है। कालिदास की दृष्टि में यदि इस कृति का आत्मा प्रेम होता तो, कदापि इस कृति के अभिधान में "अभिज्ञान" शब्द का प्रयोग नहीं करते । इस बात की पुष्टि सानुमती के इस कथन से होती है-अथवेदशोऽनुरागोऽभिज्ञानमपेक्षते । कथमिवैतत् । अर्थात् इस प्रकार के प्रेम को पहचान की आवश्यकता होती है ? यह कैसे ?' यह सच है कि सानुमती दुर्वासा के शाप से बेखबर है। पर, यह भी सच है कि यदि प्रेम में प्रेमी एक-दूसरे को ही भूल जाए तो वह प्रेम कैसा ? ऐसा प्रेम तो शारीरिक प्रेम या भ्रमरवृत्ति वाला प्रेम ही हो सकता है। भ्रमर प्रसंग के द्वारा कवि ने सूचित कर दिया है कि दुष्यन्त का प्रेम भ्रमर-पुष्प के प्रेम का सा है। हंसपदिका के गीत से भी सिद्ध होता है कि दुष्यन्त भ्रमर-वृत्ति का है और स्त्रियों से प्रेम करके अपनी अनुकूलता के अनुरूप उन्हें भूल जाने की उसकी आदत है।' भ्रमर कहां याद रखता है कि उसने अकेले में कब किस पूष्प से प्रेम किया, कब किस पुष्प का रसास्वादन किया। जिस तरह खजूर से ऊबे हुए व्यक्ति की इमली खाने की इच्छा होती है, उसी प्रकार राज-प्रासाद के रत्न-रानियों के आस्वाद से ऊबा हुआ दुष्यन्त इमली सी शकुन्तला को पाने के लिए लालायित है। दुष्यन्त के इस स्वभाव से प्रियम्वदा एवं अनसूया भी परिचित है तभी तो वह पूछ बैठती है---"वयस्य बहुवल्लभा राजानः श्रूयन्ते ।" दुष्यन्त स्वयं स्वीकार करता है कि वह शकुन्तला से तहदिल से प्रेम नहीं करता है। और उसकी इस चालाकी का ज्ञान द्वितीय अंक में ही हो जाता है कि वह अन्तःपुर की रानियों से डरता है ! विदूषक शकुन्तला विषयक प्रेम की बातें कहीं राजप्रासाद में जाकर न कह दें, इसीलिए तो वह कहता है कि शकुन्तला के प्रति मुझे अनुराग नहीं है... ... मजाक में कही गई बड़-बड़ को सत्य मत मान लेना।"" दुर्वासा-शाप के वशीभूत होते हुए भी दुष्यन्त की विलासी-वृत्ति तो वहीं की वहीं है कि वह
खण्ड १९, अंक ३
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