Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 18
________________ और उनके वैराग्यका चित्रण आया है । छप्पनवें सर्गमें नेमिनाश्रकी नपस्या और केवलज्ञानकी उत्पत्ति, सत्तावनवे सर्गमें समवशरण, अट्ठानवें सर्गमें नेमिनाथकी दिव्ययनि एवं उनसठवें सर्गमें नेमिनाथक विहारका वर्णन आया है। माठवें सर्गमें गजकुमारके निर्वेदका वर्णन आया है । इकसठवें सर्गमें द्वारिकाका भस्म होना, वासठवें सर्गमें कृष्णकी मृत्यु, तिरेसठव्य सर्गमें श्रीकृष्णका दाह-सस्कार वणित है। चौसठवें सर्गमें नेमिनाथका पल्लवदेशमें विहार, पैंसठवेंमें पाण्डवोंकी तपस्या एवं छियासठवें सर्गमें भगवान् महावीरके निर्वाणका प्रसंग वर्णित है । इम्म प्रकार इस ग्रन्थ में त्याग, संयम और अहिंसाकी त्रिवेणी समाहित है। नेमिनाथका पावन जीवन मानव-जीवनके समक्ष कर्तव्य और आदर्शकी स्पष्ट रूपरेला प्रस्तुत करता है। प्रतिभा एवं रचनाशली-हरिवशपुराण ज्ञानकोष है। इसमें कम-सिद्धान्त, आचारशास्त्र, तत्वज्ञान एवं आत्मानुभूति सम्बन्धी चर्चा निबद्ध हैं । ग्रह पुराणग्रन्थ होने पर भी उच्चकोटिका महाकाव्य है। सैंतीसवें मर्गस साहित्यिक सुषमाकी वृद्धि उत्तरोत्तर परिलक्षित होने लगती है। इस ग्रन्थका पचवनबा सुगं ता यमकादि शब्दालंकारोंको दृष्टिस महत्त्वपूर्ण है। ऋतु-बर्णन, चन्द्रोदय-वर्णन, वन, पर्वत, नगर, सरोवर, ऊषा, सन्ध्या आदिके चित्रण महाकाव्यके अनुरूप आये हैं। कृष्णकी मत्युक उपरान्त बलदेव द्वारा किया गया करुण विलाप पाषाणहृदयको भी द्रवित करने में समर्थ है। नामनायकी वैराग्यचित्रण प्रत्येक संसारीको माया-ममतासे विमुख होनेका संकेत करता है। राजीमतिके परित्यागपर पाठकोंके नेत्रोंसे सहानुभूतिकी अश्रुधारा प्रवाहित हुए बिना नहीं रहती । कवि वसन्तऋतुके वर्णन-प्रसंगमें पुष्पावचय-क्रीडाका जीवन्त चित्रण उत्प्रेक्षा द्वारा करता हुआ कहता है---- कुसुमभारभृतः प्रणता भृशं प्रणयभङ्गभियेव नता द्रुमाः । युवतिहस्तधुताः कुसुमोच्चयेऽतनुसुखं तरुणा इव भेजिरे ।। अनसिनम्रतया निजशाखया कथमपि प्रमदाकरलब्धया। तरुगण: कुसुमग्रहणेऽभजदृढकचग्रहसौख्यमिव प्रभुः ॥ पुष्पोंके भारको धारण करनेवाले वृक्ष अत्यन्त नमीभूत हो रहे थे। उससे वे ऐसे प्रतिभासित होते थे, मानों स्नेहभंगके भयसे ही नम्रीभूत हों, पुरुषोंके समान अतनु-बहुत भारी अथवा कामसम्बन्धी सुखका अनुभव प्राप्त कर १ हरिवंशपुराण, पचपनवां सम, पद्य ३१, ४० । ६ : तीर्थफर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा

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