Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रथम वन्दनीय और विमलपद हरिवंशकी वन्दना करता हूँ ।"
जन
इनकी एक ही रचना प्राप्त है, हरिवंशपुराण। यह दिगम्बर सम्प्रदायका प्रमुख पुराणन्यन्य है। रविषेणाचार्य के पद्मपुराण और जटासिह्नन्दिके वराङ्गचरिका इसपर प्रभाव है । जिनसेन ने अपने हरिवंग में महासेनकी सुलोचना तथा अन्यान्य ग्रन्योंका भी उल्लेख किया है, किन्तु वे अभी तक प्राप्त नहीं हूँ । हरिवंशपुराण की कथावस्तु जिनमेनको अपने गुरु कीर्तिसेन से प्राप्त हुई थी । वनशैलीपर रविषेण पद्मचरितका पूर्ण प्रभाव है। जिस प्रकार रविषेण ने पद्मचरित वृत्तानुगन्धी गद्य का प्रयोग किया है, उसी प्रकार जिनसेनने भी हरिवंशके ४९ संगम नेमि जिनेन्द्रका स्तवन करते हुए वृत्तानुगन्धी गद्यका प्रयोग किया है। इस पुराणग्रन्थका लोकविभाग एवं शलाकापुरुषोंका वर्णन त्रिलोकप्रज्ञप्ति से मेल खाता है। द्वादशांगवर्णन तत्त्वार्थवार्तिकके अनुरूप है। संगीतका वर्णन भरतमुनिके नाट्यशास्त्रसे अनुप्राणिन है । तस्व-प्रतिपादनमें तत्त्वार्थ सूत्र और सर्वार्थसिद्धिका आधार ग्रहण किया गया है। अतएव इम पुराण-ग्रन्थपर पूर्वाचार्योंका पूर्ण प्रभाव है ।
हरिवंशपुराणको कथावस्तु — इस पुराण में रवें तीर्थंकर नेमिनाथका चरित्र निबद्ध है, पर प्रसंगोपात्त अन्य कथानक भी लिखे गये हैं । भगवान नेमिनाथके साथ नारायण श्री कृष्ण और बलभद्रपदके धारक श्री बलरामके भी कौतुकावह चरित्र अंकित हैं। पाण्डवों और कौरवोंका लोकप्रिय चरित भी बढ़ा सुन्दरताके साथ निबद्ध किया गया है। कथावस्तु ६६ सर्गो में विभक्त हैं। प्रथम सर्गमें मंगलाचरण और ग्रन्थकी महत्ता, द्वितीय सर्ग में तीर्थकर महावीरका जीवनवृत्त, तृतीय सगमें महावीरका समवशरण और विपुलाचल पर उपदेश तथा त्रिष्टि शलाकापुरुषोंके चरित्रोंको जानने की जिज्ञासा, चतुर्थ समें अधोलोकका वर्णन, पञ्चम सर्ग में तिर्यक्लोकका निरूपण, पष्ठसमें ज्योतिर्देव एवं उर्ध्वलोकका चित्रण, सप्तम सर्ग में कुलकरोंकी उत्पत्ति और उनके द्वारा की गयी समाजव्यवस्थाका चित्रण अष्टम सग में आदि तीर्थकर ऋषभदेवका जन्म, नवम सर्ग में तीर्थंकर ऋषभदेवकी बालक्रीड़ा, दोषता कल्याणक एवं ज्ञानकल्याणकका वर्णन किया गया है। दशम सर्भ में मुनिधर्म और श्रावकधर्म के निरूपणके पश्चात् श्रुतज्ञानका चित्रण, एकादेश
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१. बृहजसहस्वद्दयं हरिवंसुरपतिकारयं पढमं ।
दामि वंदियं पि हरिवंसं चेत्र विमलपथं ॥ कुवलयमाला, गाथा ३८ ।
४ तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा