________________
११]
हिन्दी-सार संस्कार भी अनुभवके अनुसार ही होता है, अतः एकार्थग्राही ज्ञानसे पड़ा हुआ संस्कार भी एकार्थग्राही ही फलित होता है इसलिये संस्कारसे भी उक्त विवेक नहीं हो सकेगा।
अथवा, ज्ञान आत्माका स्वभाव होकर भी जब कथञ्चित् भिन्न विवक्षित हो जाता है तब एक ही आत्मा कर्ता और करण भी बन जाता है ।
१७-१८ पर्याय और पर्यायीके भेद और अभेदको अनेकान्तदृष्टिसे देखना चाहिए। यथा, घट कपाल सकोरा आदि पर्यायोंमें मृद्रप द्रव्यकी दृष्टिसे कथञ्चित् एकत्व है तथा उन घट आदि पर्यायोंकी दृष्टिसे विभिन्नता है उसी तरह आत्मा और ज्ञानादि गुणोंमें द्रव्यदृष्टिसे एकता है तथा गुण और गुणीकी दृष्टिसे विभिन्नता है। आत्मा ही बाहय और आभ्यन्तर कारणोंसे ज्ञानादि पर्यायोंको प्राप्त होता है और ज्ञान दर्शन आदि व्यवहारोंका विषय बन जाता है। वस्तुतः आत्मा और ज्ञानादि भिन्न नहीं है। यदि यह ऐकान्तिक नियम बनाया जाय कि कर्ता और करणको भिन्न ही होना चाहिए तो 'वृक्ष शाखाओंके भारसे टूट रहा है' यहां वक्ष और शाखाभारमें भी भेद मानना होगा । पर ऐसा है नहीं, क्योंकि शाखाभारको छोड़कर वृक्षकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसी तरह आत्माको छोड़कर ज्ञानका और ज्ञानादिको छोड़कर आत्माका पृथक् अस्तित्व नहीं है।
१९-२१ जैसे द्रव्य मूर्त भी होते हैं तथा अमूर्त भी उसी तरह करण दो प्रकार का होता है-एक विभक्तकर्तृक-जिनका कर्ता जुदा और करण जुदा होता है और दूसरा अविभक्तकर्तृक । 'कुल्हाड़ीसे लकड़ी काटी जाती है' यहां कुल्हाड़ी विभक्तकर्तृक करण है तथा 'वृक्ष शाखाओंके भारसे टूटता है' यहां शाखाभार अविभक्तकर्तृक करण है। इसी तरह 'अग्नि उष्णतासे जलाती है' 'आत्मा ज्ञानसे जानता है' यहां उष्णता और ज्ञान अविभक्तकर्तृक करण हैं क्योंकि उष्णताकी अग्निसे तथा ज्ञानकी आत्मासे पृथक् सत्ता ही नहीं है। जैसे 'कुशूल टूट रहा है यहां जब कुशूल स्वयं ही नष्ट हो रहा है तो स्वयं ही कर्ता और स्वयं ही करण बन जाता है उसी तरह आत्मा ही ज्ञाता और ज्ञान होकर कर्ता और करण रूप बन जाता है। एक ही अर्थकी अनेक पर्याएं होती हैं। जैसे एक ही देवराज इन्द्र शक्र और पुरन्दर आदि पर्यायोंको धारण करता है । इन्दन क्रियाके समय इन्द्र, शासन क्रियाके समय शक तथा पूरण क्रियाके समय पुरन्दर कहा जाता है। देवराजसे उक्त तीनों अवस्थाएँ सर्वथा भिन्न नहीं हैं क्योंकि एक ही देवराज उन तीन अवस्थारूप होता है। वे देवराजसे अभिन्न हैं, इसलिए वह जिस रूपसे इन्द्र है उसी रूपसे शक्र, और पुरन्दर भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन्द्रादि अवस्थाएं जुदी जुदी हैं, उसी तरह एक ही आत्माका ज्ञान दर्शन आदि अवस्थाओंसे कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद है । अतः ज्ञानादिकको आत्मासे सर्वथा भिन्न नहीं कहा जा सकता।
२२-२३ अथवा, ज्ञान दर्शन आदि शब्दोंको कर्तृ साधन मानना चाहिए'जानाति इति ज्ञानम्' अर्थात् जो जाने सो ज्ञान, 'पश्यतीति दर्शनम्' अर्थात् जो तत्त्वश्रद्धा करे वह दर्शन, 'चरतीति चारित्रम्'-अर्थात् जो आचरण करे वह चारित्र । तात्पर्य यह कि ज्ञानादिपर्यायोंसे परिणत आत्मा ही ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप होता है, इसलिए कर्ता और करणकी भिन्नताका सिद्धान्त मानकर आत्मा और ज्ञानमें भेद करना उचित नहीं है। व्याकरण शास्त्रसे भी ज्ञान दर्शन चारित्र आदि शब्दोंमें होनेवाले युट् और णित्र प्रत्यय कर्ता आदि सभी साधनोंमें होते हैं अतः कोई शाब्दिक विरोध भी नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org