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तस्वार्थवार्तिक १३ यह पूर्वविदेह अपरविदेह उत्तरकुरु और देवकुरु इन चार भागोंमें विभाजित है। भरतक्षेत्रके दिग्विभागकी अपेक्षा मेरुके पूर्व में पूर्वविदेह, उत्तरमें उत्तर कुरु, पश्चिममें अपर विदेह और दक्षिणमें देवकुरु है। विदेहके मध्यभागमें मेरु पर्वत है। उसकी चारों दिशाओंमें चार वक्षार पर्वत हैं।
सीतानदीके पूर्वकी ओर जम्बूवृक्ष है। उसके पूर्व दिशाकी शाखा पर वर्तमान प्रासादमें जम्बूद्वीपाधिपति अनावृत नामका व्यन्तरेश्वर रहता है । तथा अन्य दिशाओं में उसके परिवारका निवास है।
नीलकी दक्षिण दिशामें एक हजार योजन तिरछे जानेपर सीतानदीके दोनों तटोंपर दो यमकाद्रि हैं ।
सीतानदीसे पूर्वविदेहके दो भाग हो जाते हैं-उत्तर और दक्षिण । उत्तरभाग चार वक्षार पर्वत और तीन विभंग नदियोंसे बंट जाता है और ये आठों भूखण्ड आठ चक्रवतियोंके उपभोग्य होते हैं। कच्छ सुकच्छ महाकच्छ कच्छक कच्छकावर्त लांगलावर्त पुष्कल और पुष्कलावर्त ये उन देशोंके नाम हैं। उनमें क्षेमा क्षेमपुरी अरिष्टा अरिष्टपरी खड़गा मंजूषा ओषधि और पुण्डरीकिणी ये आठ राजनगरियाँ हैं। कच्छदेशमें पूर्व पश्चिम लंबा विजयाध पर्वत है। वह गंगा सिन्धु और विजयासे बंटकर छह खंडको प्राप्त हो जाता है। इसी तरह दक्षिण पूर्वविदेह भी चार वक्षार और तीन विभंग नदियोंसे विभाजित होकर आठ चक्रवर्तियोंके उपभोग्य होता है । वत्सा सुवत्सा महावत्सा वत्सावती रम्या रम्यका रमणीया और मंगलावती ये आठ देशोंके नाम हैं।
इसी तरह अपर विदेह भी उत्तर-दक्षिण विभक्त होकर आठ-आठ देशोंमें विभाजित होकर आठ-आठ चक्रवर्तियोंके उपभोग्य होता है।
विदेहके मध्यमें मेरु पर्वत है। यह ९९ हजार योजन ऊंचा, पृथिवीतलमें एक हजार योजन नीचे गया है । इसके ऊपर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पांडुक ये चार वन हैं। पांडक वनमें बीचोबीच मेरुकी शिखर प्रारम्भ होती है । उस शिखरकी पूर्व दिशामें पांडुक शिला, दक्षिणमें पाण्डुकम्बल शिला, पश्चिममें रक्तकम्बल शिला और उत्तरमें अतिरक्त कम्बल नामकी शिला हैं। उनपर पूर्वमुख सिंहासन रखे हुए हैं। पूर्व सिंहासनपर पूर्वविदेहके तीर्थङ्करोंका, दक्षिणके सिंहासनपर भरतक्षेत्रके तीर्थङ्करोंका, पश्चिममें अपर विदेहके तीर्थङ्करोंका और उत्तरमें ऐरावतके तीर्थङ्करोंका जन्माभिषेक देवगण करते हैं। यह मेरु पर्वत तीनों लोकोंका मानदंड है । इसके नीचे अधोलोक, चूलिकाके ऊपर ऊर्ध्वलोक है और मध्यमें तिरछा फैला हुआ मध्यलोक है । इत्यादि विदेह क्षेत्रका विस्तृत वर्णन मूल-ग्रन्थसे जान लेना चाहिए।
१४-१६ नील पर्वतके उत्तर रुक्मि पर्वतके दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम समुद्रोंके बीच रम्यक क्षेत्र है। रमणीय देश नदी-पर्वतादिसे युक्त होनेके कारण इसे रम्यक कहते हैं। वैसे 'रम्यक' नाम रूढ़ ही है । रम्यक क्षेत्रके मध्यमें गन्धवान् नामक वृत्तवेदाढय है। यह शब्दवान् वृत्तवेदाढयके समान लम्बा-चौड़ा है। इसपर पमदेवका निवास है।
१७-१९ रुक्मिके उत्तर शिखरीके दक्षिण तथा पूर्व पश्चिम समुद्रोंके बीच . हरण्यवत क्षेत्र है। हिरण्यवाले रुक्मि पर्वतके पास होनेसे इसका नाम हैरण्यवत पड़ा है।
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