Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ ३६२ तत्त्वार्थवार्तिक [३३६ रुचकवर द्वीपमें ८४ हजार योजन ऊँचा ४२ हजार योजन विस्तृत रुचक पर्वत है । इसके नन्द्यावर्त आदि चार कूट हैं। इनमें दिग्गजेन्द्र रहते हैं । उनके ऊपर प्रत्येकके आठआठ कूट और हैं। इन पर दिक्कुमारियाँ रहती हैं । ये तीर्थङ्करोंके गर्भ और जन्मकल्याणकके समय माताकी सेवा करती है। आर्या म्लेच्छाश्च ॥३६॥ मानुषोत्तरसे पहिले रहनेवाले मनुष्य आर्य और म्लेच्छके भेदसे दो प्रकार के हैं। १-२ गुण और गुणवानोंसे जो सेवित हैं वे आर्य हैं। आर्य दो प्रकारके हैंएक ऋद्धिप्राप्त और दूसरे अनृद्धिप्राप्त आर्य । अनुद्धिप्राप्त आर्य पांच प्रकार के हैंक्षेत्रार्य जात्यार्य कर्यि चारित्रार्य और दर्शनार्य । काशी कौशल आदि देशोंमें उत्पन्न क्षेत्रार्य हैं । इक्ष्वाकु ज्ञाति भोज आदि कुलोंमें उत्पन्न जात्यार्य हैं। कर्मार्य तीन प्रकार के हैं-सावद्यकार्य अल्पसावद्यकर्यि और असावद्यकर्यि । सावद्यकर्यि असि मषी कृषि विद्या शिल्प और वणिक्कर्मके भेदसे छह प्रकार के हैं। तलवार धनुष आदि शस्त्रविद्यामें निपुण असिकर्मार्य हैं। मुनीमीका कार्य करनेवाले मषिकर्मार्य हैं । हल आदिसे कृषि करनेवाले कृषिकर्मार्य हैं। चित्र गणित आदि ७२ कलाओंमें कुशल विद्याकर्यि हैं । धोबी नाई लुहार कुम्हार आदि शिल्पकर्मार्य हैं। चन्दन घी धान्यादिका व्यापार करनेवाले वणिक्कर्यि हैं। ये छहों अविरत होनेसे सावद्यकर्यि हैं । श्रावक और श्राविकाएं अल्पसावद्यकर्यि हैं । मुनिव्रतधारी संयत असावद्यकर्यि हैं। ये दो प्रकार के हैं-अधिगतचारित्रार्य और अनधिगतचारित्रार्य । जो बाह्योपदेशके बिना स्वयं ही चारित्रमोहके उपशम क्षय आदिसे चारित्रको प्राप्त हुए हैं वे अधिगतचारित्रार्य और जो बाह्योपदेशकी अपेक्षा चारित्रधारी हुए हैं वे अनधिगतचारित्रार्य हैं। दर्शनार्य दश प्रकार के हैं-सर्वज्ञकी आज्ञाको मुख्य मानकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए आज्ञारुचि हैं। अपरिग्रही मोक्षमार्गके श्रवणमात्रसे सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए मार्गरुचि है। तीर्थङ्कर बलदेव आदिके चरित्रके उपदेशको सुनकर सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाले उपदेशरुचि हैं। दीक्षा आदिके निरूपक आचारांग आदि सूत्रोंके सुनने मात्रसे जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे सूत्ररुचि है। बीजपदोंके निमित्तसे जिन्हें सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हुई वे बीजरुचि हैं । जीवादिपदार्थों के संक्षेप कथनसे ही सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेवाले संक्षेपरुचि हैं। अंगपूर्वके विषय, प्रमाणनय आदिका विस्तार कथनसे जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे विस्ताररुचि हैं। वचनविस्तारके बिना केवल अर्थग्रहणसे जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ वे अर्थरुचि हैं। आचारांग आदि द्वादशांगमें जिनका श्रद्धान अतिदृढ़ है वे अवगाढ़रुचि हैं। परमावधि केवल ज्ञानदर्शनसे प्रकाशित जीवादि पदार्थ विषयक प्रकाशसे जिनकी आत्मा विशुद्ध है वे परमावगाढ़रुचि हैं। इस तरह रुचिभेदसे सम्यग्दर्शन दस प्रकार का है और दर्शनार्य भी दस प्रकार के हैं। ६३ ऋद्धिप्राप्त आर्य आठ ऋद्धियोंके भेदसे आठ प्रकार के हैं। बुद्धि-ज्ञान, यह ऋद्धि केवलज्ञान अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान बीजबुद्धि आदिके भेदसे अठारह प्रकार की है। केवलज्ञान अवधि और मनःपर्यय प्रसिद्ध हैं। जैसे उर्वर क्षेत्रमें एक भी बीज अनेक बीजोंका उत्पादक होता है उसी तरह एक बीजपदसे ही श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे अनेक पदार्थोंका ज्ञान करना बीजबुद्धि है। जैसे कोठारमें अनेक प्रकारके धान्य सुरक्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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