Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 450
________________ ४४२] हिन्दी सार ४२७ ६-द्रव्य सामान्य और गुणसामान्यसे । द्रव्यत्व रूपसे आत्मा 'अस्ति' है तथा प्रतियोगि गुणत्वकी दृष्टिसे 'नास्ति' है। युगपत् उभय विवक्षामें अवक्तव्य और क्रमशः उभय विवक्षामें उभयात्मक है।। ७--धर्मसमुदाय और तद्वयतिरेकसे। त्रिकाल गोचर अनेकशक्ति तथा ज्ञानादि धर्म समुदाय रूपसे आत्मा 'अस्ति' है तथा तदभाव रूपसे 'नास्ति' है। युगपत् उभय विवक्षा में अवक्तव्य और क्रमशः उभय विवक्षामें उभयात्मक है। ८-धर्म सामान्य सम्बन्धसे और तदभावसे । ज्ञानादि गुणोंके सामान्य सम्बन्ध की दृष्टिसे आत्मा 'अस्ति' है तथा किसी भी समय धर्मसामान्य सम्बन्धका अभाव नहीं होता अतः तदभावकी दृष्टिसे 'नास्ति' है । युगपत् विवक्षामें अवक्तव्य और क्रमविवक्षामें उभयात्मक है। ९-धर्मविशेष सम्बन्ध और तदभावसे। किसी विवक्षित धर्मके सम्बन्धकी दृष्टि से आत्मा 'अस्ति' है तथा उसीके अभाव रूपसे 'नास्ति' है । जैसे आत्मा नित्यत्व या चेतनत्व किसी अमुक धर्मके सम्बन्धसे 'अस्ति' है और विपक्षी धर्मसे 'नास्ति' है। युगपत् उभय विवक्षामें अवक्तव्य है और क्रमविवक्षामें उभयात्मक है । ___ पाँचवाँ भंग तीन स्वरूपोंसे द्वयात्मक होता है। अनेक द्रव्य और अनेक पर्यायात्मक जीवके किसी द्रव्यार्थ विशेष या पर्यायार्थ विशेषकी विवक्षामें एक आत्मा 'अस्ति' है, वही पूर्व विवक्षा तथा द्रव्यसामान्य और पर्यायसामान्य या दोनोंकी युगपदभेद विवक्षामें वचनोंके अगोचर होकर अवक्तव्य हो जाता है । जैसे आत्मा द्रव्यत्व जीवत्व या मनुष्यत्व रूपसे 'अस्ति' है तथा द्रव्यपर्याय सामान्य तथा तदभावकी युगपत् विवक्षामें अवक्तव्य है। इस तरह 'स्यादस्ति अवक्तव्य' भंग बनता है । यह भी विवक्षासे अखंड वस्तुको ग्रहण करनेके कारण सकलादेश है क्योंकि इसने एक अंशरूपसे समस्त वस्तुको ग्रहण किया है । छठवाँ भंग भी तीन स्वरूपोंसे दो अंशवाला होता है । वस्तुगत नास्तित्व ही जब अवक्तव्य रूपसे अनुबद्ध होकर विवक्षित होता है तब यह भंग बनता है। नास्तित्व पर्यायकी दृष्टिसे है । पर्यायें दो प्रकारको हैं-एक सहभाविनी और दूसरी क्रमभाविनी। गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय आदि सहभाविनी तथा क्रोध मान बाल्य यौवन आदि क्रमभाविनी पर्यायें हैं । गत्यादि और क्रोधादि पर्यायोंसे भिन्न कोई एक अवस्थायी जीव नहीं है, किन्तु ये ही क्रमिक पर्यायें जीव कही जाती हैं। जो वस्तुत्वेन 'सत्' है वही द्रव्यांश है तथा जो अवस्तुत्वेन 'असत्' है वही पर्यायांश है। इन दोनोंकी युगपत् अभेद विवक्षामें वस्तु अवक्तव्य है । इस तरह आत्मा नास्ति अवक्तव्य है। यह भी सकलादेश है क्योंकि विवक्षित धर्मरूपसे अखण्ड वस्तुको ग्रहण करता है। साता भङ्ग चार स्वरूपोंसे तीन अंशवाला है। किसी द्रव्यार्थ विशेषकी अपेक्षा अस्तित्व किसी पर्यायविशेषकी अपेक्षा 'नास्तित्व' होता है तथा किसी द्रव्यपर्याय विशेष और द्रव्यपर्याय सामान्यकी युगपत् विवक्षामें वही अवक्तव्य भी हो जाता है । इस तरह अस्ति नास्ति अवक्तव्य भंग बन जाता है। यह भी सकलादेश है क्योंकि इसने विवक्षितधर्मरूपसे अखण्ड समस्त वस्तुका ग्रहण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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