Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 452
________________ ४|४२] हिन्दी-सार ४२९ और अविभक्त संग्रह व्यवहार । शब्दनय व्यंजन पर्यायोंको विषय करते हैं। वे अभेद तथा भेद दो प्रकारके वचन प्रयोगको सामने लाते हैं। शब्दनयमें पर्यायवाची विभिन्न शब्दोंका प्रयोग होनेपर भी उसी अर्थका कथन होता है, अतः अभेद है । समभिरूढ़नयमें घटनक्रियामें परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घटका निरूपण होता है। एवंभूतमें प्रवृत्तिनिमित्तसे भिन्न ही अर्थका निरूपण होता है। अथवा एक अर्थमें अनेक शब्दोंकी प्रवृत्ति या प्रत्येकमें स्वतंत्र शब्दोंका प्रयोग, इस तरह भी दो प्रकार हैं । शब्दनयमें अनेक पर्यायवाची शब्दोंका वाच्य एक ही होता है । समभिरूढ़ में चूंकि शब्द नैमित्तिक है अतः एक शब्दका वाच्य एक ही होता है। एवंभूत वर्तमान निमित्तको पकड़ता है अत: उसके मतसे भी एक शब्दका वाच्य एक ही है। २७ इन परस्पर विरुद्ध सरीखे दिखनेवाले धर्मों में नयदृष्टि से योजना करनेपर कोई विरोध नहीं रहता। विरोध तीन प्रकारका है-१ वध्यघातक भाव, २ सहानवस्थान, ३ प्रतिबन्ध्य प्रतिबन्धक भाव । वध्यघातक भाव विरोध सर्प और नकुल या अग्नि और जलमें होता है। यह दो विद्यमान पदार्थों में संयोग होनेपर होता है, संयोगके बाद जो बलवान् होता है वह निर्बलको बाधित करता है । अग्निसे असंयुक्त जल अग्निको नहीं बुझा सकता। परन्तु आप अस्तित्व और नास्तित्वकी एक वस्तुमें क्षणमात्र भी वृत्ति नहीं मानना चाहते अतः यह विरोध कैसे होगा? यदि दोनोंकी एक वस्तुमें युगपत् वृति स्वीकार करते हो तो जब दोनों धर्म तुल्य हेतुक और समान बलशाली हैं तब एक दूसरेको कैसे बाध सकता है ? जिससे इनमें बध्यघातक विरोध माना जाय । दूसरा सहानवस्थान विरोध एक वस्तु की क्रमसे होनेवाली दो पर्यायोंमें होता है। नयी पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्वपर्याय नष्ट हो जाती है। जैसे आमका हरा रूप नष्ट होता है और पीतरूप उत्पन्न होता है। किन्तु अस्तित्व और नास्तित्व वस्तुमें क्रमिक नहीं हैं। यदि ये क्रमभावी होते तो अस्तित्वकालमें नास्तित्व और नास्तित्वकालमें अस्तित्वका अभाव प्राप्त होगा। ऐसी दशामें नास्तित्वका अभाव होनेपर जीवमात्र जगत् हो जायगा। और अस्तित्वकै अभावमें शून्यताका प्रसङ्ग आयगा, और समस्त बन्ध मोक्षादि व्यवहारका उच्छेद हो जायगा । सर्वथा असत्की उत्पत्ति और सत्का सर्वथा विनाश नहीं हो सकता। अतः यह विरोध भी अस्तित्व-नास्तित्वमें नहीं हो सकता। प्रतिबन्ध्य प्रतिबन्धक भाव विरोध भी इनमें नहीं है। जैसे आमका फल जब तक डालमें लगा हुआ है तब तक फल और डंठलका संयोग रूप प्रतिबन्धकके रहनेसे गुरुत्व मौजूद रहने पर भी आमको नीचे नहीं गिराता। जब संयोग टूट जाता है तब गुरुत्व फल को नीचे गिरा देता है। 'संयोग' के अभावमें गुरुत्व पतनका कारण होता है, यह सिद्धान्त है। परन्तु यहाँ न तो अस्तित्व नास्तित्वके प्रयोजनका प्रतिबन्ध करता है और न नास्तित्व अस्तित्व के। अस्तित्वकालमें ही परकी अपेक्षा 'नास्ति' बुद्धि होती है तथा नास्तित्वके समय ही स्वापेक्षया अस्तित्व बुद्धि और व्यवहार होता है। इस तरह विवक्षाभेदसे जीवादिपदार्थ एकानेकात्मक हैं। चतुर्थ अध्याय समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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