Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 425
________________ ४०२ तस्वार्थवार्तिक [४।५-७ १४ पारिषद् अर्थात् सभ्य । ये मित्र और पीठमर्द-अर्थात् नर्तकाचार्यके समान विनोदशील होते हैं। ६५ अंगरक्षकके समान कवच पहिने हुए सशस्त्र पीछे खड़े रहनेवाले आत्मरक्ष - है। यद्यपि कोई भय नहीं है फिर भी विभूतिके द्योतनके लिए तथा दूसरोंपर प्रभाव डालनेके लिए आत्मरक्ष होते हैं। १६ अर्थरक्षकके समान लोकपाल होते हैं। ६७ पदाति आदि सात प्रकारको सेना अनीक है । ६८ नगर या प्रान्तवासियोंके समान प्रकीर्णक होते है। ६९ दासोंके समान आभियोग्य होते हैं। ये ही विमान आदिको खींचत हैं और वाहक आदि रूपसे परिणत होते हैं। १० पापशील और अन्तवासीकी तरह किल्विषक होते हैं। ६११ प्रत्येक निकायमें इन भेदोंकी सूचनाके लिए 'एकशः' पदमें वीप्साथक शस् प्रत्यय है। त्रायस्त्रिंशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः ॥५॥ व्यन्तर और ज्योतिष्कोंमें वायस्त्रिश और लोकपालके सिवाय आठ भेद होते हैं । पूर्वयोर्दीन्द्राः ॥६॥ भवनवासी और व्यन्तरों में दो दो इन्द्र होते हैं। १-२ पूर्वयोः' इस शब्दसे प्रथम और द्वितीय निकायका ग्रहण करना चाहिए, समदाय और समुदायवालेमें भेद विवक्षाकी दृष्टि से देवोंके निकायोंमें ऐसा भेदपरक निर्देश किया है । जैसे आमोंका वन या धान्यकी राशि । ३ 'द्वीन्द्राः' यहाँ वीप्सार्थकी विवक्षा है अर्थात् दो दो इन्द्र होते हैं। भवनवासियोंमें असुरकुमारोंके चमर और वैरोचन, नागकुमारोंके धरण और भूतानन्द, विद्यत्कुमारोंके हरिसिंह और हरिकान्त, सुपर्णकुमारोंके वेणुदेव और वेणुधारी, अग्निकुमारोंके अग्निशिख और अग्निमाणव, वातकुमारोंके वैलम्ब और प्रभजन, स्तनितकुमारोंके सुघोष और महाघोष, उदधिकुमारोंके जलकान्त और जलप्रभ, द्वीपकुमारोंके पूर्ण और वशिष्ट तथा दिक्कुमारोंके अमितगति और अमितवाहन नामके इन्द्र हैं। व्यन्तरोंमें किन्नरोंके किन्नर ओर किंपुरुष, किम्पुरुषोंके सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगोंके अतिकाय और महाकाय, गन्धर्वोके गीतरति और गीतयश, यक्षोंके पूर्णभद्र और माणिभद्र, राक्षसोंके भीम और महाभीम, पिशाचोंके काल और महाकाल तथा भूतोंके प्रतिरूप और अप्रतिरूप नामके इन्द्र हैं। सुखभोगका प्रकार कायप्रवीचारा मा ऐशानात् ॥७॥ ऐशान स्वर्ग पर्यन्त मैथुन सेवन शरीरसे होता है। ११ मथुन व्यवहारको प्रवीचार कहते हैं । शरीरसे मैथुन सेवनको कायप्रवीचार कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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