Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 427
________________ ४०४ तत्वार्थवार्तियः प्रभावशाली हैं, वे सदा जिनपूजा आदि शुभकार्यों में लगे रहते हैं, उनमें स्त्रीहरण आदि निमित्तोंसे वैरकी संभावना ही नहीं है अत: अल्पप्रभाववाले असुरोंसे युद्धकी कल्पना ही व्यर्थ है। ७-८ ये सदा कुमारोंकी तरह वेषभूषा तथा यौवनक्रीडाओंमें लगे रहते हैं अतः कुमार कहलाते हैं। कुमार शब्दका सम्बन्ध प्रत्येकके साथ है-असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार आदि। इस जम्बूद्वीपसे तिरछे असंख्यात द्वीपसमुद्रोंके बाद पंक बहुल भागमें चमर नामके असुरेन्द्रके ३४ लाख भवन है । इस दक्षिणाधिपतिके ६४ हजार सामानिक, ३३ त्रायस्त्रिश, तीन परिषत्, सात अनीक, चार लोकपाल, पाँच अग्रमहिषी, ४०३४ आत्मरक्ष यह विभव परिवार है। उत्तरदिशामें वैरोचनके तीस लाख भवन है। इसके ६० हजार सामानिक, ३३ त्रास्त्रिश, ३ परिषत्, ७ अनीक, ४ लोकपाल, ५ अग्रमहिषी, ४०६४ आत्मरक्ष यह विभव परिवार है । कुल मिलाकर पंकबहुल भागमें ६४ लाख भवन हैं। ___ खर पृथिवी भागके ऊपर नीचे एक एक हजार योजन छोड़कर शेष भागमें शेष नव कुमारोंके भवन हैं । इस जम्बूद्वीपसे तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रोंके बाद धरण नागराज के ४४ लाख भवन हैं। इसके ६० हजार सामानिक, ३३ आयस्त्रिश, तीन परिषत् , सात अनीक, चार लोकपाल, छह अग्रमहिषी, छह हजार आत्मरक्ष हैं। इस जम्बूद्वीपसे तिरछे उत्तरकी ओर असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके बाद भूतानन्द नागेन्द्र के ४० लाख भवन हैं । इसका विभव धरणेन्द्रके समान है। इस तरह नागकुमारोंके ८४ लाख भवन हैं। सुवर्णकुमारोंके ७२ लाख भवन हैं। इसमें दक्षिणदिशाधिपति वेणुदेवके ३८ लाख और उत्तराधिपति वेणुधारीके ३४ लाख हैं। विभव' धरणेन्द्रके समान है। विद्युत्कुमार अग्निकुमार स्तनितकुमार उदधिकुमार द्वीपकुमार और दिक्कुमार इन प्रत्येकके ७६ लाख भवन हैं। इनमें दक्षिणेन्द्र हरिसिंह, अग्निशिख, सुघोष, जलकान्त, पूर्ण और अमितगति इन प्रत्येकके ४० लाख भवन हैं। हरिकान्त, अग्निमाणव, महाघोष, जलप्रभ, शिष्ट और अमितवाहन इन प्रत्येक उत्तरेन्द्र के ३६ लाख भवन हैं। वातकुमारोंके ९६ लाख भवन हैं। इनमें दक्षिणेन्द्र वैलम्बके ५० हजार भवन हैं। और उत्तराधिपति प्रभजनके ४६ लाख भवन हैं। इस तरह कुल मिलाकर सात करोड ७२ लाख भवन हैं । व्यन्तरोंके भेदव्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥११॥ १-३ विविध देशों में निवास होनेसे इन्हें व्यन्तर कहते हैं। इनके किन्नर आदि आठ भेद हैं । देवगतिके उत्तरभेद रूप उन उन प्रकृतियोंके उदयसे ये किन्नर आदि भेद हुए हैं। ६४ प्रश्न-खोटे मनुष्योंको चाहनेके कारण किन्नर, कुत्सित पुरुषोंकी कामना करने के कारण किम्पुरुष, मांस खानेसे पिशाच आदि कारणोंसे ये संज्ञाएं क्यों नहीं मानते ? उत्तर-यह सब देवोंका अवर्णवाद है । ये पवित्र वैक्रियिक शरीरके धारक होते हैं वे कभी भी अशुचि औदारिक शरीरवाले मनुष्य आदिकी कामना नहीं करते और न वे मांस मदिरादिके खानपानमें प्रवृत्त ही होते हैं। लोकमें जो व्यन्तरोंकी मांसादि ग्रहणकी प्रवृत्ति सुनी जाती है वह केवल उनकी क्रीड़ा है । वे तो मानस आहार लेते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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