Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 428
________________ ४।१२] हिन्दी सार ४०५ इस जम्बूद्वीपसे तिरछे असंख्य द्वीप समुद्रोंके बाद नीचे खर पृथिवी भागमें दक्षिणाधिपति किन्नरेन्द्रके असंख्यात लाख नगर है। इसके ४ हजार सामानिक, तीन परिषद्, सात अनीक, चार अग्रमहिषी और सोलह हजार आत्मरक्ष हैं। उत्तराधिपति किन्नरेन्द्र किम्पुरुषका भी इतना ही विभव परिवार है। शेष छह दक्षिणाधिपति-सत्पुरुष अतिकाय गीतरति पूर्णभद्र स्वरूप और कालके दक्षिण दिशामें आवास हैं। तथा उत्तराधिपति महापुरुष महाकाय गीतयश माणिभद्र अप्रतिरूप और महाकालके उत्तरदिशामें आवास हैं। राक्षसेन्द्र भीमके दक्षिण दिशामें पंकबहुल भागमें असंख्यात लाख नगर है और उत्तराधिपति महाभीमके उत्तरदिशामें । सोलहों व्यन्तरोंके सामानिक आदि विभव परिवार एक जैसा है। भूमितलमें भी व्यन्तर द्वीप पर्वत समुद्र देश ग्राम नगर तिगड्डा चौराहा घर गली जलाशय उद्यान देवमन्दिर आदिमें निवास करते हैं। ज्योतिष्कोंका वर्णनज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥१२॥ सूर्य चन्द्रमा ग्रह नक्षत्र और तारागण ये पांच प्रकारके ज्योतिष्क देव हैं। ६१-३ प्रकाश स्वभाव होनेसे ये ज्योतिष्क कहलाते हैं। ज्योतिष् शब्दसे स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होनेपर ज्योतिष्क शब्द सिद्ध होता है । यद्यपि ज्योतिष् शब्द नपुंसक लिंग है फिर भी क प्रत्यय स्वार्थमें होनेपर पुल्लिग ज्योतिष्क शब्द बन जाता है जैसे कुटीसे कुटीर शुण्डासे शुण्डार आदि । अर्थात् कहीं कहीं लिंग-व्यतिक्रम हो जाता है। ४-१० उन उन देवगति नाम कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंके उदयसे सूर्य चन्द्र आदि संज्ञाएं रूढ़ हुई हैं। 'सूर्याचन्द्रमसौ' यहाँ ‘देवताद्वन्द्वे' सूत्रसे आनङ प्रत्यय हुआ है। यह सर्वत्र नहीं होता। 'सूर्याचन्द्रमसौ' का पृथक् ग्रहण इसलिए किया है कि ये प्रभाव ज्योति आदिके कारण सबमें प्रधान हैं। सूर्यका प्रथम पाठ इसलिए किया है कि उसमें अल्प स्वर हैं और वह प्रभावशाली तथा अपनी प्रभासे सबका अभिभव करने में समर्थ होनेसे पूज्य भी हैं। ग्रह शब्द अल्प अच्वाला है और अभ्यर्हित है अतः उसका नक्षत्र और तारकासे पहिले ग्रहण किया है। इसी तरह तारकासे नक्षत्र अल्पाच् और अहित है। इस भूमितलसे ७९० योजन ऊपर ज्योतिर्मण्डलमें सबसे नीचे तारागण हैं। उससे दश योजन ऊपर सूर्य, उससे ८० योजन ऊपर चन्द्रमा, उससे तीन योजन ऊपर नक्षत्र, उससे तीन योजन ऊपर बुध, उससे तीन योजन ऊपर शुक्र, उससे तीन योजन ऊपर बृहस्पति, उससे चार योजन ऊपर मंगल और उससे चार योजन ऊपर शनैश्चर हैं। इस तरह सम्पूर्ण ज्योतिश्चक्र ११० योजन ऊंचाई और असंख्यात द्वीपसमूह प्रमाण लम्बाईमें है।। __अभिजित नक्षत्र सबसे भीतर और मूल सबसे बाहिर है । भरणी सबसे नीचे और स्वाति सबसे ऊपर है । सूर्यके विमान तपे हुए सुवर्णके समान प्रभावाले लोहित मणिमय, ४८१ योजन लम्बे २४१० योजन चौड़े, आधे गोलकके आकारवाले और सोलह हजार देवों द्वारा वहन किये जाते हैं । पूर्व दक्षिण उत्तर और पश्चिम दिशामें क्रमशः चार चार हजार देव सिंह हाथी वृषभ और घोड़ेके आकारको धारण करके सूर्य के विमानमें जुते रहते हैं। इनके ऊपर सूर्य देव हैं। इनके सूर्य प्रभा सुसीमा अर्चिमालिनी और प्रभंकरा ये चार अग्रमहिषी हैं। ये प्रत्येक चार चार हजार देवियोंकी विक्रिया कर सकती हैं। सूर्य असंख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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