Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 432
________________ १] हिन्दी सार सौधर्मशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु अवेयकेषु विजय- . वैजयन्तजयान्तपराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥१६॥ सौधर्म ऐशान आदि स्वर्ग, नवग्रेवेयक विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्धिमें कल्पोपपन्न और कल्पातीत विमानवासियोंका निवास है । ६१-२ सौधर्म आदि संज्ञाएं स्वभावसे अथवा साहचर्यसे पड़ी हैं। इनके साहचर्यसे इन्द्र भी सौधर्म आदि कहलाते हैं । सुधर्मा नामकी सभा जिसमें पाई जाती है वह सौधर्म कल्प है। सौधर्म कल्पके साहचर्यसे इन्द्र भी सौधर्म कहा जाता है। ईशान नामका इन्द्र है। ईशानका निवासभूत कल्प ऐशान कहा जाता है, फिर इन्द्र भी ऐशान ही कहा जाता है । सनत्कुमार नामका इन्द्र स्वभावसे है। उसका निवासभूत कल्प सानत्कुमार कहलाता है। इन्द्र भी इसीलिए सानत्कुमार कहा जाता है। महेन्द्र नामका इन्द्र है । इसका निवासभूत कल्प माहेन्द्र और इन्द्र भी माहेन्द्र कहा जाता है। ब्रह्मा इन्द्र है। उसके निवासको ब्रह्मलोक कल्प कहते हैं तथा इन्द्र भी ब्रह्म कहलाता है। इसी तरह ब्रह्मोत्तर । लान्तव इन्द्रक निवासभूत कल्पको लान्तव कहते हैं, इन्द्र भी लान्तव कहलाता है। शुक्र इन्द्रका निवास कल्प शौक या शुक्र, इन्द्र भी शुक्र । शतार इन्द्रका निवासभूत कल्प शतार और इन्द्र भी शतार । इसी तरह सहस्रारमें भी। आनत इन्द्रका निवासभूत कल्प आनत और इन्द्र भी आनत । प्राणत इन्द्रका निवास प्राणत कल्प और इन्द्रका नाम भी प्राणत । आरण इन्द्रका निवास कल्प आरण और इन्द्रका नाम भी आरण । अच्युत इन्द्रका निवास अच्युत कल्प और इन्द्र भी अच्युत । लोक पुरुषके ग्रीवाकी तरह अवेयक हैं । विजयादि विमानोंकी भी इसी तरह सार्थक संज्ञाएं हैं। इनके इन्द्रोंके भी यही नाम हैं । ३ सर्वार्थसिद्धि विमानमें एक ही उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर की है, प्रभाव भी सर्वार्थसिद्धिके देवोंका सर्वोत्कृष्ट है इत्यादि विशेषताओंके कारण सर्वार्थसिद्धिका पृथग् ग्रहण किया है। ४-५ वेयक आदिको कल्पातीत बतलानेके लिए उनका पृथक् ग्रहण किया है। नव शब्दको पृथक् रखनेसे नव अनुदिशकी सूचना हो जाती है । अनुदिश अर्थात् प्रत्येक दिशामें वर्तमान विमान । ६-८ 'उपरि उपरि' के साथ दो दो स्वर्गोका सम्बन्ध है । अर्थात् सौधर्म ऐशान के ऊपर सानत्कुमार माहेन्द्र आदि । सोलह स्वर्गामें एक एक इन्द्र है पर मध्यके ८ स्वर्गों में चार इन्द्र हैं। इसलिए 'आनतप्राणतयोः आरणाच्युतयोः' इन चार स्वर्गीका पृथक् निर्देश करना सार्थक होता है । अन्यथा लाघवके लिए एक ही द्वन्द्व समास करना उचित होता । __ इस भूमितलसे ९९००४० योजन ऊपर सौधर्म ऐशान कल्प हैं। उनके ३१ विमान प्रस्तार हैं । ऋतु चन्द्र विमल आदि उनके नाम हैं। मेरु पर्वतके शिखर और ऋतुदियान में मात्र एक बालका अन्तर है। ऋतुविमानसे चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणियाँ हैं। प्रत्येक ६२-६२ विमान हैं। विदिशाओं में पुष्प प्रकीर्णक हैं। प्रभा नामक इन्द्रककी श्रेणीमें अठारवाँ विमान कल्पविमान है। उसके स्वस्तिक वर्धमान और विश्रुत नामके तीन प्राकार हैं । बाह्य ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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