Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 431
________________ ४०८ तत्त्वार्यवार्तिक [१५-१८ ढोनेवालेमें गौण गौ व्यवहार कैसे होता ? अतः कालका गौण व्यवहार ही वर्तना लक्षणवाले मुख्य कालका अस्तित्व सिद्ध करता है। इसीलिए कलाओंके समूहको ही काल नहीं कहते। अस्तिकायोंमें उन द्रव्योंको गिनाया है जिनमें प्रदेशप्रचय-बहुत प्रदेश पाये जाते हैं। काल एकप्रदेशी होनेसे अस्तिकाय नहीं है। यदि कालकी सत्ता ही न होती तो वह द्रव्योंमें क्यों गिनाया जाता? बहिरवस्थिताः ॥१५॥ मनुष्यलोकसे बाहरके ज्योतिषी देव अवस्थित हैं। ६१ मनुष्य-लोकसे बाहिर ज्योतिषी हैं और अवस्थित हैं, इन दोनों बातोंकी सिद्धिके लिए यह सूत्र बनाया है। यदि यह न बनाया जाता तो पहिलेके सूत्रसे 'मनुष्यलोकमें ही ज्योतिषी हैं और वे नित्यगति हैं' यह अर्थ स्थित रह जाता है। वैमानिकाः ॥१६॥ यहाँसे वैमानिकोंका कथन किया जाता है जिनमें रहनेसे विशेषतया अपनेको सुकृति मानें वे विमान, विमानोंमें रहनेवाले वैमानिक हैं। इन्द्रक श्रेणि और पुष्पप्रकीर्णकके भेदसे विमान तीन प्रकारके हैं । इन्द्रक विमान इन्द्रकी तरह मध्यमें हैं। उसकी चारों दिशाओंमें क्रमबद्ध श्रेणिविमान हैं तथा विदिशाओं में प्रकीर्ण पुष्पकी तरह अक्रमी पुष्पप्रकीर्णक विमान हैं। कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥१७॥ वैमानिकोंके दो भेद हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत । इन्द्र आदि दश प्रकारकी कल्पनाएं जिनमें पाई जायं वे कल्पोपपन्न तथा जहाँ सभी 'अहमिन्द्र' हों वे कल्पातीत।। ६१ यद्यपि नव ग्रैवेयेक नव अनुदिश आदिमें नव आदि संख्याकृत कल्पना है पर 'कल्पातीत' व्यवहारमें इन्द्र आदि दश प्रकारकी कल्पनाएं ही मुख्य रूपसे विवक्षित हैं। उपर्युपरि ॥१८॥ ६१ ये ऊपर ऊपर हैं । न तो ज्योतिषियोंकी तरह तिरछे हैं और न व्यन्तरोंकी तरह अनियत ही हैं । यहाँ 'समीप' अर्थमें उपरि शब्दका द्वित्व हुआ है । यद्यपि इनमें परस्पर असंख्यात योजनोंका व्यवधान है फिर भी दो स्वर्गोंमें अन्य किसी सजातीय-स्वर्गका व्यवधान नहीं है अतः समीपता मानकर द्वित्व कर दिया है। २-५ ऊपर ऊपर कल्प अर्थात् स्वर्ग है। देव तो एक दूसरेके ऊपर हैं नहीं और न विमान ही क्योंकि श्रेणि और पुष्पप्रकीर्णक विमान समतलपर तिरछे फैले हुए हैं । यद्यपि पूर्व सूत्रमें 'कल्पोपपन्नाः' में 'कल्प' पद समासान्तर्गत होनेसे गौण हो गया है फिर भी विशेष प्रयोजनसे उसका यहाँ सम्बन्ध हो जाता है। जैसे 'राजपुरुषोऽयम्' यहाँ 'कस्य' प्रश्न होनेपर 'राजपुरुष' में से 'राज' का सम्बन्ध कर लिया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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