Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 430
________________ ४।१४] हिन्दी-सार ४०७ चन्द्र, ११६७ नक्षत्र, ३६९६ ग्रह, २८ कोड़ाकोड़ी लाख १२ कोड़ाकोड़ी हजार ९ कोडीकोड़ी सैकड़ा ५० कोड़ाकोड़ी तारा है। पुष्करार्धमें ७२ सूर्य, ७२ चन्द्र, २०१६ नक्षत्र, ६३३६ ग्रह, ४८ कोड़ाकोड़ी लाख २२ कोड़ाकोड़ी हजार, दो कोडाकोड़ी सैकड़ा तारा हैं। बाह्य पुष्कराध में भी इतने ही ज्योतिष्क देव हैं। पुष्कर समुद्र में इससे चौगुनी संख्या है उससे आगे प्रत्येक द्वीप समुद्र में दनी दनी है। ताराओंका जघन्य अन्तरगव्यत है, मध्यम ५० गव्यत और उत्कष्ट अन्तर एक हजार योजन है। चन्द्र और सूर्यका जघन्य अन्तर ९९६४० योजन और उत्कृष्ट अन्तर १००६६६ योजन है । जम्बूद्वीप आदिमें एक एक चन्द्रमाके ६६ हजार कोडाकोड़ी ९ सौ कोडाकोड़ी और ७५ कोड़ाकोड़ी तारा, ८८ महाग्रह और २८ नक्षत्र हैं। सूर्यके १८४ मंडल ८० सौ जम्बूद्वीपके भीतर घुसकर प्रकाशित करते हैं । इनमें ६५ आभ्यन्तर मंडल हैं तथा लवणोदधिके भीतर ३३ सौ योजन घुसकर प्रकाशित करते हैं । बाह्य मण्डल ११९ हैं । एक एक मण्डलका अन्तर दो दो योजन है । २४६ योजन उदयान्तर है । सबसे भीतरी मण्डल में सूर्य ४४८२० योजन मेरुपर्वतसे दूर सूर्य प्रकाशित होता है । इसका विस्तार ९९६४० योजन है। इस समय १८ मुहूर्तका दिन होता है। एक मुहूर्तका गतिक्षेत्र ५२५१३० योजन है। सर्व बाह्य मण्डल में सूर्य ४५३३० योजन मेरु पर्वतसे दूर रहकर प्रकाशित होता है । इसका विस्तार १००६६० योजन है। इस समय दिनमान १२ मुहूर्त है। ५३०५२५ योजन मुहूर्तगतिक्षेत्र है । उस समय ३१८३१३ योजनमें सूर्य दिखाई देता है। - चन्द्रमण्डल १५ हैं। द्वीपके भीतर पाँच मंडल हैं और समुद्र में दस । १५ मंडलों के १४ अन्तर हैं। एक एक मंडलान्तरका प्रमाण ३५१४-3 योजन है। सर्वाभ्यन्तर मंडलको १३७२५ से भाग देनेपर ५०७३, शेष रहता है। यह चन्द्रमण्डलकी एक मुहूर्तकी गतिका परिमाण है । सर्व बाह्यमंडलको १३७२५ से भाग देनेपर ५१२५१ शेष रहता है। यह चन्द्रमंडलकी एक मुहूर्तकी गतिका परिमाण है। ५१० योजन सूर्य और चन्द्रका चार क्षेत्रका विस्तार है। तत्कृतः कालविभागः ॥१४॥ ज्योतिषियोंकी गतिसे दिन रात्रि आदि कालविभाग जाना जाता है। ६१ 'तत्' शब्दसे ज्ञात होता है कि न तो केवल गतिसे कालविभाग होता है और न केवल ज्योतिषियोंसे ; क्योंकि गतिकी उपलब्धि नहीं होती और ज्योतिषियोंमें परिवर्तन नहीं होता। २-४ काल दो प्रकारका है-मुख्य और व्यवहार । समय आवली आदि व्यवहार काल ज्योतिषियोंकी गतिसे गिना जाता है। यह क्रियाविशेषसे परिच्छिन्न होता है और अन्य पदार्थोके परिच्छेदका कारण होता है। प्रश्न-सूर्य आदिकी गतिसे पृथक् कोई मुख्य काल नहीं है, क्योंकि उसका अनुमापक लिंग नहीं पाया जाता। कलाओंके समूहको काल कहते हैं। कला अर्थात् क्रियाके भाग। आगममें पाँच ही अस्तिकाय बताए हैं अतः छठवाँ काल कोई पदार्थ नहीं है। उत्तर-सूर्यगति आदिमें जिस कालका उपचार किया जाता है वही मुख्य काल है। मुख्यके बिना कहीं भी गौण व्यवहार नहीं होता। यदि मुख्य गौ न होती तो बोझा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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