Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 436
________________ ધારર 1 हिन्दी-सार ૪૨ कार्यानिष्ठा, भीरुता, अतिविषयाभिलाष, अतिगृद्धि, माया, तृष्णा, अतिमान, वंचना, अनृत भाषण, चपलता, अतिलोभ आदि भाव नीललेश्याके लक्षण हैं । मात्सर्य, पैशुन्य, परपरिभव, आत्मप्रशंसा, परपरिवाद, जीवन नैराश्य, प्रशंसकको धन देना, युद्ध, मरणोद्यम आदि कपोत लेश्याके लक्षण हैं । दृढ़मित्रता, दयालुता, सत्यवादिता, दानशीलत्व, स्वकार्यपटुता, सर्वधर्मसमदर्शित्व आदि तेजोलेश्याके लक्षण हैं । सत्यवाक्य, क्षमा, सात्त्विकदान, पाण्डित्य, गुरु- देवतापूजनरुचि आदि पद्मलेश्याके लक्षण हैं । निर्वैर, वीतरागता, शत्रुके भी दोषों पर दृष्टि न देना, निन्दा न करना, पाप कार्योंसे उदासीनता, श्रेयोमार्ग रुचि आदि शुक्ललेश्याके लक्षण हैं । गति - लेश्या छब्बीस अंशोंमें मध्यके आठ अंशोमें आयुबंध होता है तथा शेष अठारह अंश गतिहेतु होते हैं । उत्कृष्ट शुक्ललेश्यावाला सर्वार्थसिद्धि जाता है । जघन्य शुक्ल लेश्यासे शुक्र महाशुक्र शतार और सहस्रार जाता है । मध्यम शुक्ललेश्यासे आनत और सर्वार्थसिद्धिके मध्य के स्थानों में उत्पन्न होता है । उत्कृष्ट पद्मलेश्यासे सहस्रार, जघन्य पद्मलेश्यासे सानत्कुमार माहेन्द्र तथा मध्यम पद्मलेश्यासे ब्रह्मलोकसे शतार तक उत्पन्न होता है । उत्कृष्ट तेजोलेश्यासे सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पके अन्तमें चक्रेन्द्रकश्रेणि विमान तक, जघन्यतेजोलेश्यासे सौधर्म ऐशानके प्रथम इन्द्रकश्रेणि विमान तक, तथा मध्य तेजोलेश्या से चन्द्रादि इन्द्रश्रेणि विमानसे बलभद्र इन्द्रक श्रेणि विमान तक उत्पन्न होता है । उत्कृष्ट कृष्णलेश्यांशसे सातवें अप्रतिष्ठान नरक, जघन्य कृष्णलेश्यांशसे पांचवें नरकके तमिस्रबिल तक तथा मध्य कृष्णलेश्यांशसे हिमेन्द्रकसे महारौरव नरक तक उत्पन्न होते हैं । उत्कृष्ट नीललेश्यांशसे पांचवें नरकमें अन्ध इन्द्रक तक, जघन्य नीललेश्यांशसे तीसरे नरकके तप्त इन्द्रक तक, तथा मध्यमनीललेश्यांशसे तीसरे नरकके त्रस्त इन्द्रकसे झष इन्द्रक तक उत्पन्न होते हैं। उत्कृष्ट कपोतलेश्यांशसे बालुकाप्रभाके संप्रज्वलित नरकमें, जघन्यकपोत लेश्यांशसे रत्नप्रभाके सीमंतक तक तथा मध्यमकपोत लेश्यांशसे रौरकादिकमें संज्वलित इन्द्रक तक उत्पन्न होते हैं । कृष्ण नील कपोत और तेजके मध्यम अंशोंसे भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क पृथिवी जल और वनस्पतिकायमें उत्पन्न होते हैं । मध्यम कृष्ण नील कपोत लेश्यांशोंसे तेज और वायुकायमें उत्पन्न होते हैं । देव और नारकी अपनी लेश्याओंसे तिर्यञ्च और मनुष्यगतिमें जाते हैं । स्वामित्व - रत्नप्रभा और शर्कराप्रभामें नारकियोंके कापोत लेश्या, है बालुकाप्रभामें कापोत और नील लेश्या, पंकप्रभा में नीललेश्या धूमप्रभामें, नील और कृष्ण लेश्या, तम:प्रभामें कृष्ण लेश्या तथा महातमः प्रभामें परमकृष्ण लेश्या है । भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कृष्ण नील कपोत और तेजो लेश्या, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके संक्लिष्ट कृष्ण नील और कपोत लेश्या, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंक संक्लिष्ट कृष्ण नील कापोत और पीतलेश्या, चारों गुण स्थानवर्ती संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च बौर मनुष्योंके छहों लेश्याएं, पांचवें छठवें तथा सातवें गुणस्थानमें तीन शुभलेश्याएं, अपूर्वकरणसे १३ वें गुणस्थान तक केवल शुक्ललेश्या होती है । अयोगकेवलियोंके लेश्या नहीं होती । सोधर्म और ऐशान में तेजोलेश्या सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में तेज और पद्मलेश्या, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव और कापिष्ठमें पद्मलेश्या, शुक्र महाशुक्र शतार और सहस्रारमें पद्म और शुक्ललेश्या, आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धिसे पहिले केवल शुक्ललेश्या तथा सर्वार्थसिद्धिमें परमशुक्ललेश्या होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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