Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 438
________________ ०२४-२५] हिन्दी-सार ६२-कल्पोंसे अतिरिक्त अवेयक आदि कल्पातीत हैं। भवनवासी आदिको कल्पातीत इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहाँ 'उपर्युपरि' का अनुवर्तन होता है जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कल्पसे ऊपर ऊपर कल्पातीत हैं। कल्पातीत 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं क्योंकि इनमें सामानिक आदि भेद नहीं हैं। ४ यद्यपि देवोंके भवनवासी पातालवासी व्यन्तर ज्योतिष्क कल्पवासी और विमानवासीके भेद्रसे छह प्रकार तथा पांशुतापि लवणतापि तपनतापि भवनतापि सोमकायिक यमकायिक वरुणकायिक वैश्रवणकायिक पितृकायिक अनलकायिक रिष्टक अरिष्ट और संभव ये बारह प्रकारवाले आकाशोपपन्नको मिलाकर सात प्रकार हो सकते हैं। फिर भी इन सबका चारों निकायोंमें उसी तरह अन्तर्भाव हो जाता है जैसे कि लौकान्तिक देवोंका कल्पवासियोंमें । पातालवासी और आकाशोपपन्न व्यन्तरोंमें और कल्पवासियोंका वैमानिकोंमें अन्तर्भाव हो जाता है अतः चारसे अतिरिक्त निकाय नहीं है। लोकान्तिकोंका वर्णन ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः ॥२४॥ १-२ जिसमें प्राणिगण रहें उसे आलय कहते हैं । लोकान्तिकोंका आलय ब्रह्मलोक है। सभी ब्रह्मलोकवासियोंको लौकान्तिक नहीं कह सकते क्योंकि 'लौकान्तिका:' पदसे 'लोकान्त' निकाल लेते हैं । इससे यह अर्थ फलित होता है कि ब्रह्मलोकके अन्तमें रहनेवाले लौकान्तिक हैं अथवा जन्मजरामरणसे व्याप्त लोक संसारका अन्त करना जिनका प्रयोजन है वे लौकान्तिक है। ये निकटसंसारी हैं। वहाँसे च्युत होकर मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर नियमसे मोक्ष चले जाते हैं। सारस्वतादित्यवहयरुणगर्ततोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ॥२५॥ १ पूर्व उत्तर आदि दिशाओंमें यथाक्रम सारस्वत आदि देवोंका निवास है। अरुण समुद्रके मध्यसे एक तमस्कन्ध मूलमें असंख्यात योजनका विस्तृत तथा मध्य और अन्तमें क्रमशः घटकर संख्यात योजन विस्तारवाला है। यह अत्यन्त तीव्र अन्धकार रूप तथा समुद्रकी तरह गोल है। यह तमस्कन्ध अरिष्ट विमानके नीचे स्थित है। इससे आठ अन्धकार राशियाँ निकलती हैं जो अरिष्ट विमानके आसपास हैं। चारों दिशाओंमें दो दो करके तिर्यक्लोक तक आठ हैं। इनके अन्तरालमें सारस्वत आदि लौकान्तिक हैं। पूर्व और उत्तरके कोणमें सारस्वत, पूर्व में आदित्य, पूर्वदक्षिण कोणमें वह्नि, दक्षिणमें अरुण, दक्षिण पश्चिममें गर्दतोय, पश्चिममें तुषित, उत्तर पश्चिममें अव्याबाध और उत्तरमें अरिष्ट विमान है। ६३ दो दो लोकान्तिकोंमें अग्न्याभ सूर्याभ आदि १६ लौकान्तिक और भी हैं। . सारस्वत और आदित्यके बीचमें अग्न्याभ और सूर्याभ, आदित्य और वह्निके अन्तरालमें चन्द्राभ और सत्याभ, वह्नि और अरुणके बीच में श्रेयस्कर और क्षेमकर, अरुण और गर्दतोयके अन्तरालमें वृषभेष्ट और कामवर, गर्दतोय और तुषितके बीच में निर्माणरज और दिगन्तरक्षित, तुषित और अव्याबाधके बीचमें आत्मरक्षित और सर्वरक्षित, अव्याबाध और अरिष्टके बीचमें मरुत् और वसु तथा अरिष्ट और सारस्वतके वीच अश्व और विश्व हैं। इन नामोंके विमान हैं। इनमें रहनेवाले लौकान्तिक देव भी इसी नामसे व्यवहृत होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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