Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 447
________________ ४२४ तत्त्वार्थवार्तिक [ ४४२ रूपसे नहीं, अतः उभयात्मक है । अन्यथा वस्तुका अभाव ही हो जायगा क्योंकि अभाव, भावनिरपेक्ष होकर सर्वथा शून्यका ही प्रतिपादन करेगा तथा भाव अभावरूपसे निरपेक्ष रहकर सर्वसन्मात्ररूप वस्तुको कहेगा । सर्वथा सत् या सर्वथा अभाव रूपसे वस्तुकी स्थिति तो है नहीं । क्या कभी वस्तु सर्वाभावात्मक या सर्वसत्तात्मक देखी गई है ? वैसी वस्तु ही नहीं हो सकती क्योंकि वह खरविषाणकी तरह सर्वाभाव रूप है । जब वस्तुत्व श्रावणत्वकी तरह सपक्ष विपक्ष दोनोंसे व्यावृत्त होनेके कारण असाधारण हो गया तब उसका बोध होना भी कठिन है । वस्तुमें क्रियागुण व्यपदेशका अभाव होनेसे भावविलक्षणता के कारण अभावता आती है तथा भावता अभाव वैलक्षण्यसे । इस तरह भावरूपता और अभाव रूपता दोनों परस्पर सापेक्ष हैं अभाव अपने सद्भाव तथा भावके अभावकी अपेक्षा सिद्ध होता है तथा भाव स्वसद्भावं और अभावके अभावकी अपेक्षासे । यदि अभावको एकांतसे अस्ति स्वीकार किया जाय तो जैसे वह अभावरूपसे अस्ति है उसी तरह भावरूपसे भी 'अस्ति' हो जाने के कारण भाव और अभावमें स्वरूपसांकर्य हो जायगा । यदि अभावको सर्वथा 'नास्ति' माना जाय तो जैसे वह भावरूपसे 'नास्ति' है उसी तरह अभावरूपसे भी 'नास्ति' होनेसे अभावका सर्वथा लोप होनेके कारण भावमात्र ही जगत् रह जायगा । और इस तरह खपुष्प आदि भी भावात्मक हो जायंगें । अतः घटादिक भाव स्यादस्ति और स्यान्नास्ति हैं । इस तरह घटादि वस्तुओंमें भाव और अभावको परस्पर सापेक्ष होने से प्रतिवादीका यह कथन कि 'अर्थ या प्रकरणसे जब घटमें पटादिकी सत्ताका प्रसंग ही नहीं है तब उसका निषेध क्यों करते हो ?' अयुक्त हो जाता है । किंच, अर्थ होने के कारण सामान्यरूपसे घट में पटादि अर्थों की सत्ताका प्रसंग प्राप्त है ही, यदि उसमें हम विशिष्ट घटरूपता स्वीकार करना चाहते हैं तो वह पटादिकी सत्ता का निषेध करके ही आ सकती है । अन्यथा वह घट नहीं कहा जा सकता क्योंकि पटादि रूपोंकी व्यावृत्ति न होनेसे उसमें पटादि रूपता भी उसी तरह मौजूद है । घटमें जो पटादिका 'नास्तित्व' है वह भी घड़ेका ही धर्म है, वह उसकी स्वपर्याय है । हाँ, परकी अपेक्षा व्यवहारमें आनेसे परपर्याय उपचारसे कही जाती है । प्रश्न - ' अस्त्येव जीव: ' यहाँ 'अस्ति' शब्दके वाच्य अर्थ से जीव शब्दका वाच्य अर्थ भिन्न स्वभाववाला है, या अभिन्न स्वभाववाला ? यदि अभिन्न स्वभाव है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि जो 'सत्' है वही जीव है, उसमें अन्य धर्म नहीं हैं । तब उनमें परस्पर सामानाधिकरण्य विशेषण विशेष्य भाव आदि नहीं हो सकेंगे, तथा दोनों शब्दों का प्रयोग भी नहीं होना चाहिये। जिस तरह 'सत्त्व' सर्व द्रव्य और पर्यायोंमें व्याप्त है उसी तरह उससे अभिन्न जीव भी व्याप्त होगा। तात्पर्य यह कि संसारके सब पदार्थों में एक जीवरूपताका प्रसंग आयगा । जीवमें सामान्य सत्स्वभाव होनेसे जीवके चैतन्य ज्ञानादि starf Tracarf सभी पर्यायोंका अभाव हो जायगा । अथवा, अस्तित्व जब जीवका स्वभाव हो गया, तब पुद्गलादिकमें 'सत्' यह प्रत्यय नहीं करा सकेगा । यदि उक्त दोषसे बचने के लिए अस्ति शब्दके वाच्य अर्थसे जीव शब्दका वाच्य अर्थ भिन्न माना जाता है तो जीव स्वयं असद्रूप हो जायगा । कहा जा सकता है कि जीव असद्रूप है क्योंकि वह अस्ति शब्दके वाच्य अर्थसे भिन्न है जैसे कि खरविषाण । ऐसी दशा में जीवाश्रित बन्ध मोक्ष आदि सभी व्यवहार नष्ट हो जायँगे । और जिस तरह अस्तित्व जीवसे भिन्न है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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