Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 434
________________ ४॥२२] हिन्दी-सारे ४११ 6५-८ गति शब्द स्वन्त तथा अल्प अच्वाला है अतः इसका सर्वप्रथम ग्रहण किया है । शरीरके रहते ही परिग्रहसंचयकी वृत्ति होती है अतः परिग्रहसे पहिले शरीरका ग्रहण है । यद्यपि वीतरागी केवलीके शरीर रहते भी परिग्रहकी इच्छा नहीं होती पर यहाँ देवोंका प्रकरण है अतः रागादियुक्त देवोंके शरीर रहते हुए परिग्रहेच्छा अवश्यंभाविनी है। परिग्रहमूलक ही संसार में अभिमान देखा जाता है अतः परिग्रहके बाद अभिमानका ग्रहण किया है । ये सब बातें ऊपर ऊपरके देवोंमें क्रमशः कम होती गई हैं। जिस प्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देव विषय क्रीडा आदिके निमित्त इधर उधर गमन करते हैं उस प्रकार ऊपरके देव नहीं, क्योंकि उनकी विषयाभिलाषा क्रमशः कम होती जाती है । सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके शरीरकी ऊंचाई ७ अरनि प्रमाण है । सानत्कुमार और माहेन्द्रमें छह अरत्नि, ब्रह्मलोक ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठमें पाँच अरनि, शुक्र महाशुक्र सतार और सहस्रारमें चार अरनि, आनत और प्राणतमें ३३ अरनि, आरण और अच्युतमें तीन अरनि प्रमाण है। अधोग्रेवेयकमें २३ अरनि, मध्य ग्रैवेयकमें २ अरनि, उपरिम अवेयक तथा अनुदिश विमानों २५ अरनि और विजयादि अनुत्तर विमानोंमें एक अरनि प्रमाण है । परिग्रह और अभिमान भी ऊपर ऊपर कम है। ९ मन्दकषायोंकी मन्दतासे अवधिज्ञानकी विशुद्धि होती है। अवधिकी विशुद्धिसे ऊपर ऊपरके देव नारकी तिर्यञ्च और मनुष्योंके विविध प्रकारके दुखोंको बराबर देखते रहते हैं और इसीलिए उनके वैराग्यरूप परिणाम रहते हैं तथा परिग्रह और अभिमान कम रहता है। १० विशुद्ध परिणामोंसे ही जीव ऊपरके देवोंमें उत्पन्न होते हैं, इसलिए भी उनमें अभिमान आदि कषायें कम रहती हैं। तिर्यञ्च असंज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय भवनवासी और व्यन्तरों में उत्पन्न होते हैं। संज्ञी तिर्यञ्च मिथ्यादृष्टि और सासादनगुणस्थानवर्ती सहस्रार स्वर्ग तक, सम्यग्दृष्टी तिर्यञ्च सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त, असंख्यातवर्षकी आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्य मिथ्यादृष्टि तथा सासादनगुणस्थानवर्ती एवं अन्य तपस्वी ज्योतिषी देवों तक, ये ही सम्यग्दृष्टी सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं। संख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि भवनवासी आदि उपरिम अवैयक तक उत्पन्न होते हैं। परिव्राजक ब्रह्मस्वर्ग तक, आजीवक सहस्रार स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। इससे ऊपर अन्यलिंगियोंकी उत्पत्ति नहीं होती। जैनलिंगधारी उत्कृष्ट तप तपनेवाले मिथ्यादृष्टियोंका अन्तिम अवेयक तक उत्पाद होता है इससे ऊपर सग्यग्दृष्टि ही उत्पन्न होते हैं। श्रावक व्रतधारियोंका सौधर्म आदि अच्युतस्वर्गपर्यन्त उत्पाद होता है। वैमानिकोंकी लेश्याएं-- . पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥२२॥ दो तीन तथा शेष में पीत पद्म और शुक्ल लेश्या है । ६१ यहाँ अलगसे लेश्याओंका कथन लघुनिर्देशके लिए है। 'पीतपद्मशुक्ललेश्याः' पदमें पीत आदिमें औत्तरपदिक ह्रस्व है जैसे भाष्यमें 'मध्यमविलम्बितयोः' पदमें है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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