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४८-१० हिन्दी-सार
..४०३ २ आङ उपसर्ग अभिविधि अर्थ में है । अर्थात् ऐशान स्वर्ग तकके देव संक्लिष्ट कर्मवाले होनेसे मनुष्योंकी तरह स्त्री विषयका सेवन करते हैं । यदि 'प्राग् ऐशानात्' ऐसा ग्रहण करते तो ऐशान स्वर्गके देव छूट जाते ।
३ 'आ ऐशानात्' ऐसा बिना सन्धिका निर्देश असन्देहके लिए किया गया है । यदि सन्धि कर देते तो 'आङ' उपसर्गका पता ही न चलता । पूर्वसूत्रमें 'पूर्वयोः का अधिकार है । अत: उसका अनुवर्तन होनसे 'ऐशानसे पहिलेके' यह अनिष्ट अर्थ होता। अतः यहाँ सन्धि नहीं की है।
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः ॥८॥ शेष स्वर्गों में स्पर्श रूप शब्द और मनके द्वारा ही कामवेदना शान्त हो जाती है ।
६१ शेष शब्दके द्वारा ऐशानके सिवाय अन्य विमानवासियोंका संग्रह होता है । ग्रेवेयकादिके देव तो 'परेप्रवीचाराः' सूत्रसे मैथुनरहित बताए जायंगे।
१२-४ प्रश्न-इस सूत्रके द्वारा यह ज्ञात नहीं होता कि स्वर्गोमें स्पर्श-प्रवीचार है तथा किनमें रूप-प्रवीचार आदि । अतः यह सूत्र अगमक है। 'दो दो' का सम्बन्ध लगानेसे भी आगमोक्त अर्थ नहीं निकलता। इन्द्रोंकी अपेक्षा दो दो का सम्बन्ध लगानेसे आनतादिक चार अन्तमें बच जाते हैं। तात्पर्य यह कि यह सूत्र अपूर्ण है।
१५ उत्तर-यद्यपि पूर्वसूत्रसे प्रवीचार शब्दकी अनुवृत्ति आती है फिर भी इस सूत्रमें दुबारा प्रवीचार शब्दके ग्रहण करनेसे इस प्रकार आगमाविरोधी इष्ट अर्थका ज्ञान हो जाता है । सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गमें देव-देवियां परस्पर अंग स्पर्श करनेसे सुखानुभवन करते हैं । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गके देव और देवियाँ परस्पर सुन्दर रूपको देखकर ही तृप्त हो जाते हैं । शुक्र महाशुक्र शतार और सहस्रार स्वर्गके देव और देवियाँ परस्पर मधुर संगीत श्रवण, मृदु हास्य, भूषणोंकी झंकार आदि शब्दोंके सुनने मात्रसे सुखानुभव करते हैं । आनत प्राणत आरण और अच्युत स्वर्गके देव देवियाँ मनमें एक दूसरेका विचार आते ही तृप्त हो जाते हैं।
परेऽप्रवीचाराः ॥६॥ ११-२ कल्पातीत-प्रेवेयकादि वासी देव प्रवीचारसे रहित हैं। प्रवीचार कामवेदनाका प्रतीकार है। इनके काम वेदना ही नहीं होती। अतः ये परमसुखका सदा अनुभव करते हैं।
__ भवनवासियोंके भेदभवनवासिनोऽसुरनागविदयुत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कु
माराः ॥१०॥ १-३ भवनोंमें रहनेके कारण ये भवनवासी कहे जाते हैं । असुर आदि उनके भेद हैं । ये भेद नामकर्मके कारण हैं।
४-६ 'देवोंके साथ असुरका युद्ध होता था अतः ये असुर कहलाते हैं' यह देवोंका अवर्णवाद मिथ्यात्वके कारण किया जाता है । क्योंकि सौधर्मादि स्वोंके देव महा
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