Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 408
________________ २१७-१९] हिन्दी-सार ३८५ तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥१७॥ इसके मध्यमें एक योजनका कमल है । इसके पत्ते एक एक कोसके और कणिका दो कोस विस्तृत है। जलसे दो कोस ऊंचा नाल है और पत्रोंका भाग भी दो कोस ऊंचा ही है । इसका मूलभाग वज़मय, कन्द अरिष्ट मणिमय, मृणाल रजतमणिमय और नाल वैडूर्यमणिमय है । इसके बाहरी पत्ते सुवर्णमय, भीतरी पत्ते चाँदीके समान, केसर सुवर्णके समान और कणिका अनेक प्रकारकी चित्रविचित्र मणियोंसे युक्त है । इसके आसपास १०८ कमल और भी हैं। इसके ईशान उत्तर और वायव्यमें श्रीदेवी और सामानिक देवोंके चार हजार कमल हैं। आग्नेयमें अभ्यन्तर परिषद्के देवोंके बत्तीस हजार कमल हैं । दक्षिणमें मध्यम परिषद्-देवोंके चालीस हजार कमल हैं। नैर्ऋत्यमें बाह्यपरिषद् देवोंके अड़तालीस हजार कमल हैं। पश्चिममें सात अनीक महत्तरोंके सात कमल हैं। चारों दिशाओंमें आत्मरक्ष देवोंके सोलह हजार कमल हैं। ये सब परिवार कमल मुख्य कमलसे आधे ऊंचे हैं। तद्विगुणद्विगुणा ह्रदाः पुष्कराणि च ॥१८॥ आगेके सरोवरों और कमलोंका विस्तार दूना दूना है। ६१ पद्महदसे दूना लम्बा-चौड़ा और गहरा महापद्म ह्रद, महापद्मह्रदसे दूना लम्बा चौड़ा और गहरा तिगिछह्रद है। इसी तरह कमल भी दूने लम्बे-चौड़े हैं।। ६२-४ प्रश्न-यदि पद्मह्रदसे आगेके दो सरोवरोंको ही दूना दूना कहना है तो 'द्विगुणाः' यहाँ बहुवचन न कहकर द्विवचन कहना चाहिए ? उत्तर-'आदि और अन्तके पद्म और पुण्डरीकह्रदसे दक्षिण और उत्तरके दो दो ह्रद दूने-दूने प्रमाणवाले हैं।' इस अर्थकी अपेक्षा बहुवचनका प्रयोग किया है। यद्यपि सूत्र में दिये गये 'तत्' शब्दसे पद्मह्रदका ही ग्रहण होता है फिर भी व्याख्यानसे विशेष अर्थका बोध होता है। आगे 'उत्तरा दक्षिणतुल्याः' सूत्रसे भी इसी अर्थका समर्थन होता है। ___ प्रश्न-यदि 'तत्' शब्दका द्विगुणशब्दसे समास किया जाता है तो 'तद्विगुण' शब्दका ही द्वित्व होगा न कि केवल द्विगुणशब्द का। यदि पहिले द्विगुणशब्दको द्वित्व किया जाता है तो 'तत्' शब्दसे समास नहीं हो सकेगा। यदि वीप्सार्थक द्वित्व किया जाता है तो वाक्य ही रह जायगा। उत्तर-'तत्' यह अपादानार्थक निपात है। अतः 'ततो द्विगुणद्विगुणाः' 'तद्विगुणद्विगुणाः' पद बन जाता है। तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीहीधृतिकोर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ॥१६॥ इन कमलोंकी कणिकाके बीचमें शरत्कालीन चन्द्रकी तरह समुज्ज्वल प्रासाद हैं । ये प्रासाद एक कोस लंबे, आधे कोस चौड़े और कुछ कम एक कोस ऊंचे हैं। इनमें श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि और लक्ष्मी सामानिक और पारिषत्क जातिके देवोंके साथ रहती हैं। ११-३ श्री आदिका द्वन्द्व समास है। वे क्रमशः पद्म आदि ह्रदोंमें रहती हैं। इनकी आयु एक पल्य की है। ये सामानिक और पारिषत्क जातिके देवोंके साथ निवास करती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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