Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 373
________________ ३५० तत्वार्थवार्तिक [२८ दूध गरम ठंडा मीठा गाढा आदि अनेक पर्यायोंको धारण करके भी दूध तो रहता ही है। इन अवस्थाओंमें दूधका दूध रूपसे ही परिणमन होता है । इसी तरह आत्माका भी उपयोग रूपसे ही परिणमन होता रहता है । यदि तत्का तदात्मक परिणमन न माना जाय तो वस्तु परिणामशून्य ही हो जायगी; क्योंकि अन्यथा परिणमन मानने पर सर्वपदार्थसांकर्य दूषण होता है, जो कि अनिष्ट है । अतः परिणामशून्यता और अन्यथापरिणमनके दूषणोंसे बचनेके लिए वस्तुमें तत्का तदात्मक ही परिणमन स्वीकार करना होगा। १३-१५ प्रश्न-चूंकि आत्माके कोई उत्पादक कारण आदि नहीं हैं अतः मण्डूक शिखण्डकी तरह उसका अभाव ही है । अतः लक्ष्यभूत आत्माके अभावमें उपयोग आत्माका लक्षण नहीं हो सकता । आत्माका सद्भाव सिद्ध हो भी तो भी उपयोग चूंकि अस्थिर है अतः वह आत्माका लक्षण नहीं हो सकता। अस्थिर पदार्थको लक्षण बनानेपर वही दशा होगी जैसे किसीने देवदत्तके घरकी पहिचान बताई कि 'जिसपर कौआ बैठा है वह देवदत्तका घर है' सो जब कौआ उड़ जाता है तो देवदत्तके घरकी पहिचान समाप्त हो जाती है और लक्षणके अभावमें लक्ष्यके अवधारणका कोई उपाय ही नहीं बच पाता । १६-१८ उत्तर-'अकारणत्वात्' हेतुसे आत्माका लोप करना उचित नहीं है; क्योंकि आत्मा नर नारकादि पर्यायोंसे पृथक् तो मिलता नहीं है और ये पर्यायें मिथ्यादर्शन आदि कारणोंसे होती है अतः अकारणत्व हेतु असिद्ध है। पर्यायोंको छोड़कर पृथक् आत्मद्रव्यकी सत्ता न होनेसे आश्रयासिद्ध भी है । जितने घटादि सत् हैं वे स्वभावसे ही सत् हैं न कि किसी कारणविशेषसे । जो सत् है वह तो अकारण ही होता है । मण्डूकशिखण्ड भी 'नास्ति' इस प्रत्ययका होनेसे 'सत्' तो है पर इसके उत्पादक कारण नहीं है अत: यह हेतु अनैकान्तिक भी है। मण्डूक शिखण्ड दृष्टान्त भी साध्यसाधन उभयधर्मोसे विकल होनेके कारण दृष्टान्ताभास है। क्योंकि उसके भी किसी अपेक्षासे कारण बन जाते हैं और वह 'सत्' भी सिद्ध हो जाता है । यथा-कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवतीकी पर्यायको धारण करता है तो भूतपूर्वनयकी अपेक्षा उस युवतीको भी हम मेंढक कह ही सकते हैं और उसके युवतिपर्यायापन्न मंडूकके शिखा होनेसे मंडूकशिखण्ड व्यवहार हो सकता है। पुदगलद्रव्यकी पर्यायोंका कोई नियम नहीं है अतः यवतीके द्वारा उपभक्त भोजन आदि पुद्गल द्रव्योंका शिखण्डक रूपसे परिणमन होनेके कारण सकारणता भी बन जाती है। इसी तरह आकाशकसम भी अपेक्षासे बन जाता है। वनस्पतिनामकर्मका जिस जीवके उदय है वह जीव और पुद्गलका समुदाय पुष्प कहा जाता है । जिस प्रकार वृक्षके द्वारा व्याप्त होनेसे वह पुष्प पुद्गल वृक्षका कहा जाता है उसी तरह आकाशके द्वारा व्याप्त होनेके कारण आकाशका क्यों न कहा जाय ? वक्षके द्वारा उपक त होनेके कारण यदि वह वक्षका कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहनरूप उपकारकी अपेक्षा उसे आकाशका भी कहना चाहिए। वृक्षसे टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाशसे तो कभी भी दूर नहीं हो सकता, सदा आकाशमें ही रहता है । अथवा मण्डूकशिखण्डविषयक ज्ञानका विषय होनेसे भी मंडूक शिखंडका सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए। __ इसी तरह 'अप्रत्यक्ष' हेतुके द्वारा आत्माका अभाव करना भी उचित नहीं हैं, क्योंकि शुद्ध आत्मा केवलज्ञानके प्रत्यक्ष होता है तथा अशुद्ध कार्मणशरीरसंयुक्त आत्मा अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञानके द्वारा। इन्द्रिय प्रत्यक्षकी दृष्टिसे तो आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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