Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 378
________________ २॥१४-१५] हिन्दी-सार जलाकर खाक बना देती है और उसका शमन जलके द्वारा ही होता है अतः पृथिवी और अग्निके बीच में जलका ग्रहण किया है। पृथिवी और जलका परिपाक अग्निके द्वारा होता है अतः इन दोनोंके बाद अग्निका ग्रहण किया है । अग्निका सन्दीपन वायुके द्वारा होता है, अतः अग्निके बाद तत्सखा वायुका ग्रहण किया है । वनस्पतिकी उत्पत्तिमें पृथिवी आदि चारों निमित्त होते हैं अतः वनस्पतिका ग्रहण सबके अन्त में किया है। वनस्पति कायिक जीवोंकी संख्या पृथिवी आदिसे अनन्तगुणी है, इसलिए संख्याकी दृष्टिसे भी उसका नम्बर अन्तमें ही आता है। इनके स्पर्शनेन्द्रिय कायबल आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं। त्रसोंके भेद द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥१४॥ दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रियवाले जीव त्रस हैं। १ आदि शब्दके अनेक अर्थ हैं, पर यहाँ आदि शब्द व्यवस्थावाची है। २-४ प्रश्न-'दो इन्द्रियाँ हैं जिसकी' इस प्रकार बहुव्रीहि समासमें अन्य पदार्थ प्रधान होनेसे द्वीन्द्रियसे आगेके जीव त्रस कहे जायँगे जैसे कि 'पर्वतसे लेकर खेत है' यहाँ पर्वतकी गिनती खेतमें नहीं होती। उत्तर-जैसे 'सफेद वस्त्रवालेको लाओ' इस तद्गुणसंविज्ञान बहुव्रीहिमें सफेद कपड़ा नहीं छूटता है उसी तरह 'द्वीन्द्रियादयः' में भी दीन्द्रिय शामिल हो जाती है। ___अथवा, अवयवसे विग्रह करनेपर भी समासका अर्थ समुदाय होता है, जैसे 'सर्वादिः' में सर्वका भी ग्रहण होता है उसी तरह द्वीन्द्रियका भी त्रसमें अन्तर्भाव कर लेना चाहिये। द्वीन्द्रियके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां, वचनबल और कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये छह प्राण होते हैं। त्रीन्द्रियके घ्राणेन्द्रियके साथ सात, चतुरिन्द्रियके चक्षुके साथ आठ, पंचेन्द्रिय असंज्ञी तिर्यचके श्रोत्रके साथ नव और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च मनुष्य देव और नारकियोंके मनोबलके साथ दस प्राण होते हैं । इन्द्रियां पञ्चेन्द्रियाणि ॥१५॥ इन्द्रियां पांच होती हैं। अन्य मतवादी छह और ग्यारह भी इन्द्रियों मानते हैं उनका निराकरण करनेके लिए पांच शब्द दिया है। . १-२ कर्मपरतन्त्र होने पर भी अनन्त ज्ञानादि शक्तियोंका स्वामी आत्मा इन्द्र कहलाता है। अतः इन्द्रभूत आत्माके अर्थग्रहणमें लिंग अर्थात् कारणको इन्द्रिय कहते हैं। अथवा, कर्मके कारण ही यह आत्मा चारों गतियोंमें संसरण करता है अतः इस समर्थ कर्म को इन्द्र कहते हैं । इस कर्मके द्वारा सृष्ट-रची गई इन्द्रियां हैं । ये इन्द्रियां पांच हैं। ३--४ मन भी यद्यपि कर्मकृत है और आत्माको अर्थग्रहणमें सहायक होता है फिर भी वह चक्षुरादि इन्द्रियोंकी तरह नियतस्थानीय नहीं है, अनवस्थित है अतः वह . इन्द्रियोंमें शामिल नहीं किया गया है । चक्षु आदि इन्द्रियोंके द्वारा ज्ञान होनेके पहिले ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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