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तत्त्वार्थवार्तिक
[२२५२-५३ शेषास्त्रिवेदाः ॥५२॥ - शेष जीवोंके यथासंभव तीनों ही वेद होते हैं ।
१ चारित्रमोहके भेद वेद आदिके उदयसे तीनों वेद होते हैं। जो अनुभवमें आवे उसे वेद कहते हैं । वेद अर्थात् लिंग। लिंग दो प्रकारका है-१ द्रव्यलिंग और दूसरा भावलिंग। नामकर्मके उदयसे योनि पुरुषलिंग आदि द्रव्यलिंग हैं और नोकषायके उदयसे भावलिंग होते हैं। स्त्रीवेदके उदयसे जो गर्भ धारण कर सके वह स्त्री, जो सन्ततिका उत्पादक हो वह पुरुष और जो दोनों शक्तियोंसे रहित हो वह नपुंसक है। ये सब रूढ शब्द हैं। रूढियोंमें क्रिया साधारण व्युत्पत्तिके लिए होती है जैसे 'गच्छतीति गौः' यहां । यदि क्रियाकी प्रधानता हो तो बाल वृद्ध तिर्यच और मनुष्य तथा कार्मणयोगवर्ती देवोंमें गर्भधारणादि क्रियाएं नहीं पाई जाती अतः उनमें स्त्री आदि व्यपदेश नहीं हो सकेगा। स्त्रीवेद लकड़ीके अंगारकी तरह, पुरुषवेद तृणकी अग्निकी तरह और नपुसकवेद ईटके भट्ठकी तरह होता है।
अकालमृत्युका नियमऔपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५३॥
उपपाद जन्मवाले देव और नारकी, चरमोत्तम देहवाले और असंख्यात वर्षकी आयुवालोंकी आयुका घात विष-शस्त्रादिसे नहीं होता।
१-५ औपपादिक-देव और नारकी। चरम-उसी जन्मसे मोक्ष जानेवाले। उत्तम शरीरी अर्थात् चक्रवर्ती वासुदेव आदि । असंख्येयवर्षायुष पल्य प्रमाण आयुवाले उत्तरकुरु आदिके जीव । अपवर्त-विष शस्त्र आदिके निमित्तसे आयुके ह्रासको अपवर्त कहते हैं ।
१६-९ प्रश्न-उत्तम देहवाले भी अन्तिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त और कृष्ण वासुदेव तथा और भी ऐसे लोगोंकी अकालमृत्यु सुनी जाती है अतः यह लक्षण ही अव्यापी है ? उत्तर-चरम शब्द उत्तमका विशेषण है अर्थात् अन्तिम उत्तम देहवालोंकी अकालमृत्यु नहीं होती। यदि केवल उत्तमदेह पद देते तो पूर्वोक्त दोष बना रहता है । यद्यपि केवल 'चरमदेह' पद देनेसे कार्य चल जाता है फिर भी उस चरमदेहकी सर्वोत्कृष्टता बतानेके लिए उत्तम विशेषण दिया है। कहीं 'चरमदेहाः' यह पाठ भी देखा जाता है। इनकी अकालमृत्यु कभी नहीं होती।
६१०-१३ जैसे कागज पयाल आदिके द्वारा आम आदिको समयसे पहिले ही पका दिया जाता है उसी तरह निश्चित मरणकालसे पहिले भी उदीरणाके कारणोंसे आयुकी उदीरणा होकर अकालमरण हो जाता है। आयुर्वेदशास्त्रमें अकालमृत्युके वारणके लिए औषधिप्रयोग बताये गए हैं। जैसे दवाओंके द्वारा वमन विरेचन आदि कराके श्लेष्म आदि दोषोंको बलात् निकाल दिया जाता है उसी तरह विष शस्त्रादि निमित्तोंसे आयुकी भी समयसे पहिले ही उदीरणा हो जाती है। उदीरणामें भी कर्म अपना फल देकर ही झड़ते हैं, अतः कृतनाशकी आशंका नहीं है । न तो अकृत कर्मका फल ही भोगना पड़ता है और न कृत कर्मका नाश ही होता है, अन्यथा मोक्ष ही नहीं हो सकेगा और न दानादि क्रियाओंके करनेका उत्साह ही होगा। तात्पर्य यह कि जैसे गीला कपड़ा फैला देनेपर जल्दी सूख जाता है और वही यदि इकट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है उसी तरह उदीरणाके निमित्तोंसे समयके पहिले ही आयु झड़ जाती है। यही अकालमृत्यु है।
द्वितीय अध्याय समाप्त
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