Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 397
________________ ३७४ तत्त्वार्थवार्तिक [ ३२ ६९-१२ सात ही नरकभूमियाँ हैं न छह और न आठ। अतः कोई मतवालोंका यह मानना ठीक नहीं है कि अनन्त लोक धातुओंमें अनन्त पृथ्वी प्रस्तार हैं । ये भूमियाँ नीचे-नीचे हैं तिरछी नहीं हैं। यद्यपि इन भूमियोंमें परस्पर असंख्यात कोड़ा-कोड़ी योजनका अन्तराल है फिर भी इसकी विवक्षा न होनेसे अथवा अन्तरको भूमिके ऊपर-नीचेके भागमें शामिल कर देनेसे सामीप्य अर्थमें 'अधोऽधः' यह दो बार 'अधः' शब्दका प्रयोग किया है। विद्यमान भी पदार्थकी अविवक्षा होती है जैसे कि अनुदरा कन्या और बिना रोमकी भेड़ आदिमें। १३-१४ श्वेताम्बर सूत्रपाठमें 'पृथुतराः' यह पाठ है किन्तु जब तक कोई 'पृथु' सामने न हो तब तक किसीको 'पृथुतर' कैसे कहा जा सकता है ? दो मेंसे किसी एकमें अतिशय दिखानेके लिए 'तर'का प्रयोग होता है, खासकर रत्नप्रभामें तो 'पृथुतर' प्रयोग हो ही नहीं सकता; क्योंकि कोई इससे पहिलेकी भूमि ही नहीं हैं। नीचे-नीचेकी पृथिवियाँ उत्तरोत्तर हीन परिमाणवाली हैं, अतः उनमें भी 'पृथुतरा' प्रयोग नहीं किया जा सकता। अधोलोकका आकार वेत्रासनके समान नीचे-नीचे पृथु होता गया है, अतः इसकी अपेक्षा 'पृथुतर' प्रयोगकी उपपत्ति किसी तरह बैठ भी जाय तो भी इससे भूमियोंके आजू-बाजू बाहर पृथुत्व आयगा न कि नरकभूमियोंमें। कहा है-"स्वयम्भूरमण समुद्रके अन्तसे यदि सीधी रस्सी डाली जाय तो वह सातवीं नरकभूमिके काल महाकाल रौरव महारौरवके अन्तमें जाकर गिरती है"। यदि कथञ्चित् 'पृथुतराः' पाठ बैठाना भी हो तो 'तिर्यक् पृथुतराः' कहना चाहिए, न कि 'अधोऽधः' । अथवा नीचे-नीचेके नरकोंमें चूंकि दुःख अधिक है आयु भी बड़ी है अतः इनकी अपेक्षा भूमियोंमें भी 'पृथुतरा' व्यवहार यथाकथंचित् किया जा सकता है। फिर भी रत्नप्रभामें 'पृथुतरा' व्यवहार किसी भी तरह नहीं बन सकेगा। __ बिलोंकी संख्यातासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ॥२॥ इन रत्नप्रभा आदि पृथिवियोंमें क्रमशः ३० लाख २५ लाख १५ लाख १० लाख ३ लाख पांच कम एक लाख और ५ बिल हैं। १-२ त्रिंशत्' आदि पदार्थोंका परस्पर सम्बन्ध अर्थमें समास है। यथाक्रम कहनेसे क्रमशः संख्याओंका सम्बन्ध कर लेना चाहिए। रत्नप्रभाके अब्बहुल भागमें ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर मध्य भागमें नरक हैं। वे इन्द्रक श्रेणि और पुष्पप्रकीर्णकके रूपमें तीन विभागोंमें विभाजित हैं। इसमें १३ नरक प्रस्तार हैं और उनमें सीमन्तक निरय रौरव आदि १३ ही इन्द्रक हैं। शर्कराप्रभामें ११ नरक प्रस्तार और स्तनक संस्तनक आदि ग्यारह इन्द्रक हैं। बालुकाप्रभामें ९ नरक प्रस्तार और तप्त त्रस्त आदि ९ इन्द्रक हैं। पंकप्रभाग ७ नरक प्रस्तार और आर मार आदि सात ही इन्द्रक हैं। धूमप्रभाग ५ नरक प्रस्तार और तम भ्रम आदि ५ इन्द्रक है। तमःप्रभामें तीन नरक प्रस्तार और हिमवर्दल और ललक ये तीन ही इन्द्रक है। महातमःप्रभामें एक ही इन्द्रक नरक अप्रतिष्ठान नामका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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