Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 398
________________ on of my o wa 3 ९६५३ ३१३ हिन्दी-सार ३७५ सीमन्त इन्द्रक नरककी चारों दिशाओं और चार विदिशाओं में क्रमबद्ध नरक है तथा मध्यमें प्रकीर्णक । दिशाओंकी श्रेणीमें ४९, ४९ नरक है तथा विदिशाओंकी श्रेणीमें ४८, ४८ । निरय आदि शेष इन्द्रकोंमें दिशा और विदिशाके श्रेणीबद्ध नरकोंकी संख्या क्रमसे एक-एक कम होती गई है । अतः पृथिवी श्रेणी और इन्द्रक पुष्प प्रकीर्णक योग ४४३३ २९९५५६७ ३०००००० २६९५ २४९७३०५ २५००००० १४८५ १४९८५१५ १५००००० ७०७ ९९९२९३ १०००००० २६५ २९९७३५ ३०००००० ९९९३२ ९९९९५ X ८३९०३४७ ८४००००० सातवेंमें विदिशाओंमें नरक नहीं है। पूर्वमें काल, पश्चिममें महाकाल, दक्षिणमें रौरव, उत्तरमें महारौरव और मध्यमें अप्रतिष्ठान है। इन सातों पृथिवियोंमें कुछ नरक संख्यात लाख योजन विस्तारवाले और कुछ असंख्यात लाख योजन विस्तारवाले हैं। पांचवें भाग तो संख्यात योजन विस्तारवाले और ४ भाग असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं। इन्द्रक बिलोंकी गहराई प्रथम नरकमें १ कोश और आगे क्रमशः आधा-आधा कोश बढती हुई सातवेंमें ४ कोश हो जाती है। श्रेणीबद्धकी गहराई अपने इन्द्रककी गहराईसे तिहाई और अधिक है। प्रकीर्णकोंकी गहराई, श्रेणी और इन्द्रक दोनोंकी मिली हुई यहराईके बराबर है। ये सब नरक ऊँट आदिके समान अशुभ आकारवाले हैं। इनके शोचन रोदन आदि भद्दे-भद्दे नाम हैं । नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदना विक्रियाः ॥३॥ नारकी जीवोंके सदा लेश्या, परिणमन, देह, वेदना और विक्रिया सभी अशुभतर होते हैं। १-३ तिर्यञ्चोंकी अपेक्षा अथवा ऊपरके नरकोंकी अपेक्षा नीचे नरकोंमें लेश्या आदि अशुभतर होते हैं। ६४ जैसे 'नित्यप्रहसितो देवदत्तः-देवदत्त नित्य हंसता है' यहाँ नित्य शब्द बहुधा अर्थ में है अर्थात् निमित्त मिलनेपर देवदत्त जरूर हंसता है उसी तरह नारकी भी निमित्त मिलनेपर अवश्य ही अशुभतर लेश्यावाले होते हैं। यहाँ नित्यका अर्थ शाश्वत या कूटस्थ नहीं है। अतः लेश्याकी अनिवृत्तिका प्रसंग नहीं होता। प्रथम और द्वितीय नरकमें कापोतलेश्या, तृतीय नरकमें ऊपर कापोत तथा नीचे नील, चौथेमें नील, पाँचवें में ऊपर नील और नीचे कृष्ण, छठवेंमें कृष्ण, और सातवेंमें परमकृष्ण द्रव्यलेश्या होती है। भावलेश्या तो छहों होती हैं और वे अन्तर्मुहुर्तमें बदलती रहती हैं। क्षेत्रके कारण वहाँके स्पर्श, रस गन्ध वर्ण और शब्द परिणमन अत्यन्त दुःखके कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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