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३५८ तत्त्वार्थवार्तिक
[२२२० नष्ट नहीं होता, आत्मा पर्यायी है और इन्द्रियां पर्याय, तथा संज्ञा संख्या प्रयोजन आदिके भेदसे आत्मा और इन्द्रियोंमें भेद है। इन्द्रियोंके विषय--
स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥२०॥ स्पर्श रस गन्ध वर्ण और शब्द इन्द्रियोंके विषय हैं ।
१ स्पर्श आदि शब्द द्रव्यविवक्षामें कर्मसाधन और पर्यायविवक्षा में भावसाधन होते हैं। द्रव्यविवक्षामें इन्द्रियोंसे द्रव्य गृहीत होता है उससे भिन्न स्पर्शादि तो पाये ही नहीं जाते, अतः 'स्पृश्यते इति स्पर्श:-जो छुआ जाय वह स्पर्श' ऐसी कर्मसाधन व्युत्पत्ति द्रव्यपरक हो जाती है। पर्यायविवक्षामें उदासीन भावका भी कथन होता है अतः 'स्पर्शनं स्पर्शः' आदि भावसाधनमें व्युत्पत्ति बन जाती है। यद्यपि परमाणुओंके स्पर्शादि इन्द्रियग्राह्य नहीं है फिर भी उनके कार्यभूत स्थूल पदार्थों में स्पर्शादिका परिज्ञान होता है अतः उनमें भी स्पर्शादिकी सत्ता निर्विवाद है।
६२-३ प्रश्न-'तदर्थाः' में 'तत्' शब्द इन्द्रियसापेक्ष होनेसे असमर्थ हो जाता है अतः उसका अर्थ शब्दसे समास नहीं हो सकता। उत्तर-जैसे 'देवदत्तस्य गरुकलम' यहाँ गरुशब्द सदा शिष्यापेक्ष होकर भी समासको प्राप्त हो जाता है उसी तरह यहाँ भी सामान्यवाची 'तत्' शब्द विशेष इन्द्रियोंकी अपेक्षा रखनेके कारण समासको प्राप्त हो जाता है।
६४ इन्द्रियक्रमके अनुसार ही स्पर्श आदिका क्रम रखा गया है। ये सब सामान्य रूपसे पुद्गल द्रव्यके गुण हैं। वैशेषिक मतवादी पृथिवीमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, जलमें रूप रस और स्पर्श, तेजमें रूप और स्पर्श तथा वायुमें केवल स्पर्श मानते हैं। इस प्रकारका गुणविभाजन अयुक्त है; क्योंकि सभीमें सभी गुण पाए जाते हैं। वायुमें भी रूप है क्योंकि उसमें स्पर्श है जैसे कि घटमें। अग्निमें भी रस और गन्ध है; क्योंकि उसमें रूप है जैसे कि गुड़में। जलमें भी गन्ध है क्योंकि उसमें रस है जैसे कि पके आममें। जल आदिमें गन्ध आदि गुणोंकी साक्षात् उपलब्धि भी होती है। यह कल्पना तो अत्यन्त असंगत है कि जलादिकमें गन्ध पार्थिव परमाणुओंके संयोगसे आई है स्वतः नहीं है, क्योंकि हम तो यही कहेंगे कि गन्धादि जलादिके ही गुण हैं क्योंकि वहीं पाए जाते हैं। यदि जलमें गन्धको संयोगज मानते हैं तो रसको भी संयोगज ही कहना चाहिये, उसे स्वाभाविक क्यों कहते हैं ? फिर, पृथिवी आदिमें जातिभेद भी नहीं है। एक ही पुद्गल द्रव्य पृथिवी आदि नाना रूपोंमें पाया जाता है । पृथिवी ही निमित्त पाकर पिघल जाती है और जल बनती है। द्रवीभूत जल भी जमकर बरफ बन जाता है। अग्नि काजल बन जाती है आदि । इसी तरह वायु आदिमें भी रूप आदि समझ लेना चाहिए। हाँ कोई गुण कहीं विशेष प्रकट होता है कहीं नहीं।
५ स्पर्शादि परस्पर तथा द्रव्यसे कथञ्चिद् भिन्न और कथञ्चिद अभिन्न हैं । यदि स्पर्शादिमें सर्वथा एकत्व हो तो स्पर्शके छूनेपर रस आदिका ज्ञान हो जाना चाहिए। यदि द्रव्य से सर्वथा एकत्व हो तो या तो द्रव्यकी सत्ता रहेगी या फिर स्पर्शादि की। यदि द्रव्यकी सता रहती है तो लक्षणके अभावमें उसका भी अभाव हो जायगा और यदि गुणों की; तो निराश्रय होनेसे उनका अभाव ही हो जायगा । यदि सर्वथा भेद माना जाता
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