Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 389
________________ ३६६ तत्त्वार्थवार्तिक [२२३७-३९ निमित्त हैं। यदि यह निनिमित्त माना जायगा तो मोक्ष ही नहीं हो सकता क्योंकि विद्यमान और निर्हेतुक पदार्थ नित्य होता है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकेगा। कार्मण शरीरमें प्रतिसमय उपचय-अपचय होता रहता है अतः उसका अंशत: विशरण सिद्ध है और इसीलिए वह शरीर है। १८-१९ यद्यपि कार्मण शरीर सवका आधार और निमित्त है अतः उसका सर्वप्रथम ग्रहण करना चाहिए था किन्तु चूँकि वह सूक्ष्म है और औदारिकादि स्थूल कार्योके द्वारा अनुमेय है अतः उसका प्रथम ग्रहण नहीं किया। कर्मके मूर्तिमान् औदारिकादि फल देखे जाते हैं अतः वह मूर्तिमान् सिद्ध होता है। आत्माके अमूर्त अदृष्ट नामके निष्क्रिय गुणसे परमाणुओंमे क्रिया होकर द्रव्योत्पत्ति मानना उचित नहीं है। ६२०-२१ अत्यन्त स्थूल और इन्द्रियग्राह्य होनेसे औदारिक शरीरको प्रथम ग्रहण किया है। आगे आगे सूक्ष्मता दिखानेके लिए वैक्रियिक आदि शरीरोंका क्रम है। परं परं सूक्ष्मम् ॥३७॥ आगे आगेके शरीर सूक्ष्म हैं। १-२ पर शब्दके व्यवस्था, भिन्न, प्रधान, इष्ट आदि अनेक अर्थ हैं पर यहां 'व्यवस्था' अर्थ विवक्षित है। संज्ञा लक्षण आकार प्रयोजन आदिकी दृष्टिसे परस्पर विभिन्न शरीरोंका सूक्ष्मताके विचारसे पर शब्दका वीप्सा अर्थमें दो बार निर्देश किया है। प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक तैजसात् ॥३८॥ तेजस शरीर तक असंख्यातगुणें प्रदेशवाले हैं। १-५ प्रदेश अर्थात् परमाणु । परमाणुओंसे ही आकाशादिका क्षेत्र-विभाग किया जाता है। पूर्वसूत्रसे 'परं परम्' की अनुवृत्ति होती है अतः मर्यादा बाँधनेके लिए 'प्राक तेजसात्' यह स्पष्ट निर्देश किया है। प्रदेशोंकी दृष्टिसे पल्यके असंख्येय भागसे गुणित होनेपर भी इन शरीरोंका अवगाह क्षेत्र कम ही होता है । तात्पर्य यह कि औदारिकसे वैक्रियिक असंख्यात गुण प्रदेशवाला है और वैक्रियकसे आहारक । जैसे समप्रदेशवाले लोहा और रुईके पिण्डमें परमाणुओंके निबिड और शिथिल संयोगोंकी दृष्टिसे अवगाहनक्षेत्रमें तारतम्य है उसी तरह वैक्रियिक आदि शरीरोंमें उत्तरोत्तर निबिड संयोग होनेसे अल्पक्षेत्रता और सूक्ष्मता है। अनन्तगुणे परे ॥३६॥ आहारकसे तैजस और तैजससे कार्मण क्रमशः अनन्तगुणें प्रदेशवाले हैं। 6१-२ अनन्तगुणें अर्थात् अभव्योंके अनन्तगुणैसे गुणित और सिद्धोंके अनन्तवें भागसे गुणित । अनन्तके अनन्त ही विकल्प होते हैं, अतः उत्तरोत्तर अनन्तगुणता समझनी चाहिए। पूर्व सूत्रसे 'परं परं' को अनुवृत्ति होती है अतः आहारकसे तैजस अनन्तगुणा तथा तैजससे कार्मण अनन्तगुणा समझना चाहिए। ३-५ प्रश्न-पर तो कार्मण हुआ और तैजस अपर, अतः 'परापरे' यह पद रखना चाहिए ? उत्तर-शब्दोच्चारणकी दृष्टिसे यहाँ 'पर' व्यवहार अपेक्षित नहीं है किन्तु ज्ञानकी दृष्टिसे । बुद्धिमें आहारकसे आगे रखे गये तैजस और कार्मण दोनों ही 'पर' कहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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