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२।२१] हिन्दी-सार
३५३ संसार है वे संसारी हैं। जिनके पुद्गलकर्मरूप द्रव्यबन्ध और तज्जनित क्रोधादिकषायरूप भावबन्ध दोनों नष्ट हो गये हैं वे मुक्त हैं।
६३-५ यदि सूत्र में लघुताके विचारसे द्वन्द्व समास किया जाता तो अल्प अक्षर और पूज्य होनेसे मुक्त शब्दका पूर्वनिपात होने पर 'मुक्तसंसारिणः' यह प्रयोग प्राप्त होता। इसका सीधा अर्थ निकलता-'छोड़ दिया है संसार जिनने' ऐसे जीव । अर्थात् केवल मुक्तजीवोंका ही बोध हो पाता। अतः संसारिणः मुक्ताश्च यह पृथक्-पृथक् वाक्य ही दिए गए हैं। सूत्र में 'च' शब्द समुच्चयार्थक नहीं है किन्तु अन्वाचय अर्थमें है । संसारी जीवोंमें उपयोगकी मुख्यता और मुक्त जीवोंमें उपयोगकी गौणता बतानेके लिए 'च' शब्द दिया है । संसारी जीवोंमें उपयोग बदलता रहता है अतः जैसे एकाग्र चिन्तानिरोधरूप ध्यान छद्मस्थोंमें मुख्य है, केवलीमें तो उसका फल कर्मध्वंस देखकर उपचारसे ही वह माना जाता है उसी तरह संसारियोमें पर्यायान्तर होनेसे उपयोग मुख्य है, मुक्त जीवोंमें सतत एक-सी धारा रहनेसे गौण है।
६६ संसारियोंके अनेक भेद हैं तथा मोक्ष संसारपूर्वक ही होता है और सभीके स्वसंवेद्य है अतः संसारीका ग्रहण प्रथम किया है। मुक्त तो अत्यन्त परोक्ष हैं, उनका अनुभव अभी तक अप्राप्त ही है। संसारी जीवोंके भेद
समनस्काऽमनस्काः ॥११॥ संज्ञी और असंज्ञी दो प्रकारके संसारी हैं।
११ मन दो प्रकारका है-एक द्रव्य मन और दूसरा भावमन । पुद्गलविपाकी नाम कर्मके उदयसे द्रव्यमन होता है और वीर्यान्तराय तथा नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे होनेवाली आत्मविशुद्धि भावमन है । मन सहित जीव समनस्क और मनरहित अमनस्क, इस प्रकार दो तरहके संसारी हैं।
२-७ प्रश्न-दो प्रकारके जीवोंका प्रकरण है अत: संसारी समनस्क और मुक्त अमनस्क इस प्रकार यथाक्रम सम्बन्ध कर लेना चाहिए । मुक्त जीवोंको मनरहित मानना इष्ट भी है। उत्तर-इस प्रकार सभी संसारी जीवोंमें समनस्कताका प्रसंग आता है। 'संसारिणो मुक्ताश्च' और 'समनस्काऽमनस्काः' ये दो पृथक् सूत्र बनानेसे ज्ञात होता है कि पूर्वसूत्रसे केवल संसारी पदका यहां सम्बन्ध होता है अन्यथा एक ही सूत्र बनाना चाहिए था । अथवा आगे आनेवाले 'संसारिणः त्रसस्थावराः' सूत्रसे 'संसारी' पदका यहां सम्बन्ध कर लेना चाहिए। आगेके पूरे सूत्रका यहां सम्बन्ध विवक्षित नहीं है अन्यथा सभी त्रसोंमें समनस्कताका अनिष्ट प्रसङ्ग प्राप्त होता। यदि 'सस्थावराः'का भी सम्बन्ध इष्ट होता तो एक ही सूत्र बनाना चाहिए था। तात्पर्य यह कि तीनों पृथक् सूत्र बनानेसे यही फलित होता कि विवक्षानुसार पदोंका सम्बन्ध करना चाहिए। यदि एक सूत्र बनाना इष्ट होता तो एक संसारी पद निरर्थक हो जाता है और सूत्रका आकार 'संसारिमुक्ताः समनस्कामनस्कास्त्रसस्थावराश्च' यह होता । ऐसी दशामें कई अनिष्ट प्रसङ्ग होते हैं।
८ समनस्क ‘ग्रहण प्रथम किया है क्योंकि वह पूज्य है। समनस्कके सभी इन्द्रियां होती हैं।
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