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संसारीके भेद
तत्वार्थवार्तिक
संसारिणस्त्रसस्थावराः || १२ ||
संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेदसे दो प्रकारके हैं ।
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११- २ जीव विपाकी त्रस नाम कर्मके उदयसे त्रस होते हैं । 'जो भयभीत होकर गति करें वे त्रस' यह व्युत्पत्त्यर्थ ठीक नहीं है; क्योंकि गर्भस्थ अण्डस्थ मूच्छित सुषुप्त आदिमें बाह्य भयके निमित्त मिलने पर भी हलन चलन नहीं होता अत: इनमें अत्रसत्वका प्रसङ्ग प्राप्त होता है । ' त्रस्यन्तीति त्रसाः' यह केवल 'गच्छतीति गौः' की तरह व्युत्पत्ति मात्र है । ३-५ जीवविपाकी स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर होते हैं । 'जो ठहरें वे स्थावर' यह व्युत्पत्ति करनेपर वायु अग्नि जल आदि गतिशील जीव स्थावर नहीं कहे जा सकेंगे । आगम में भी द्वीन्द्रियसे लेकर अयोगकेवली तक जीवोंको त्रस कहा है। अतः वायु आदिको स्थावर कोटिसे निकालकर त्रसकोटिमें लाना उचित नहीं है । इसलिए चलन और अचलनकी अपेक्षा त्रस और स्थावर व्यवहार नहीं किया जा सकता ।
[ २।१२-१३
६ स शब्द चूँकि अल्प अक्षरवाला है और पूज्य है इसलिए पहिले लिया गया है । सोंके सभी उपयोग हो सकते हैं अतः वह पूज्य है ।
स्थावरोंके भेद
पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥
पृथिवी जल अग्नि वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर हैं ।
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११ पृथिवी काय आदि स्थावर नामकर्मके उदयसे जीवोंकी पृथिवी आदि संज्ञाएं होती हैं । पृथन क्रिया आदि तो व्युत्पत्तिके लिए साधारण निमित्त हैं, वस्तुतः रूढिवश ही पृथिवी आदि संज्ञाएं की जाती हैं । आर्ष ग्रन्थोंमें पृथिवी आदिके चार भेद किए हैं- पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवी जीव । पृथिवी स्वाभाविक पुद्गल परिणमनरूप, कठिनता आदि गुणोंवाली और अचेतन है । अचेतन होने से यद्यपि इसमें पृथिवी कायिक नाम कर्मका उदय नहीं है फिर भी यह प्रथन क्रियासे उपलक्षित होनेके कारण पृथिवी कही जाती है । अथवा, पृथिवी सामान्य रूप है । आगेके तीनों भेदों में यह अनुगत है । पृथिवी कायिक जीवके द्वारा छोड़ा गया पृथिवी शरीर अर्थात् मुर्दा शरीर की तरह अचेतन पृथिवी पृथिवीकाय है । पृथिवीकाय नामकर्मका उदय जिस जीवको है और जो जीव पृथिवीको शरीर रूपसे स्वीकार किए हुए है वह पृथिवी कायिक है । जिसके पृथिवीकाय नामकमका उदय तो हो गया है पर अभी तक जिसने पृथिवी - शरीरको धारण नहीं किया वह विग्रहगति प्राप्त जीव पृथिवीजीव है । इसी तरह जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिके चार चार भेद समझना चाहिए । 8 २-६ घट आदि पृथिवीके द्वारा जलका, सिगड़ी आदि पृथिवीके द्वारा अग्निका चमड़े कुप्पे आदि वायुका सुखपूर्वक ग्रहण किया जाता है, पर्वत मकान आदि रूपसे पृथिवी स्थूल रूपमें सर्वत्र मिलती है, भोजन, वस्त्र, मकान आदि रूपसे बहुतर उपकार पृथिवीके ही हैं, इतना ही नहीं, जल अग्नि वायु आदिके कार्य आधारभूत पृथिवीके बिना हो ही नहीं सकते अतः सर्वाधारभूत पृथिवीका सूत्र में सर्वप्रथम ग्रहण किया है । जलका आधार पृथिवी है वह आधेय है तथा पृथिवी और अग्निका विरोध है, अग्नि पृथिवीको
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