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श हिन्दी-सार
३५१ परोक्ष ही माना जाता है। घटादि परोक्ष हैं क्योंकि वे अग्राहकनिमित्तसे ग्राह्य होते हैं जैसे कि धूमसे अनुमित अग्नि । इन्द्रियाँ अग्राहक हैं क्योंकि उनके नष्ट हो जानेपर भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिड़कीके नष्ट हो जानेपर भी उसके द्वारा देखनेवाला कायम रहता है उसी तरह इन्द्रियोंसे देखनेवाला ग्राहक आत्मा स्थिर है। अतः अग्राहकनिमित्तसे ग्राह्य होनेके कारण इन्द्रियग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही है। अप्रत्यक्ष शब्दको यदि पर्युदासरूप लिया जाता है तो प्रत्यक्षसे भिन्न अप्रत्यक्ष वस्त्वन्तर सिद्ध होता है । यदि प्रसज्यपक्ष लेते हैं तो प्रतिषेध्यका क्वचित् सद्भावसिद्ध होनेपर ही प्रतिषेध किया जाता है अतः कथञ्चित् सत्ता सिद्ध होनेसे हेतु असिद्ध हो जाता है। असत् खरविषाण आदि अप्रत्यक्ष हैं तथा विद्यमान ज्ञान आदि भी अप्रत्यक्ष हैं अतः यह हेतु अनैकान्तिक है। यदि ज्ञानको स्वप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष होनेसे प्रत्यक्ष मानते हो तो आत्माको ही इस तरह प्रत्यक्ष मानने में क्या बाधा है ?
जितने भी पदार्थ शब्दगोचर हैं वे सब विधिनिषेधात्मक हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा निषेधगम्य नहीं होती । जैसे कुरवक पुष्प लाल और सफेद दोनों रंगोंका नहीं होता, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह वर्णशून्य है । इसी तरह परकी अपेक्षासे वस्तुमें नास्तित्व होने पर भी स्वदृष्टिसे उसका अस्तित्व प्रसिद्ध ही है। कहा भी है कथञ्चित् असत्की भी उपलब्धि और अस्तित्व है तथा कथञ्चित् सत्की भी अनुपलब्धि और नास्तित्व । यदि सर्वथा अस्ति और उपलब्धि मानी जाय तो घटकी पटादि रूपसे भी उपलब्धि होनेसे सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायंगे और यदि पररूपकी तरह स्वरूपसे भी असत्त्व माना जाय अर्थात् सर्वथा असत्व माना जाय तो पदार्थका ही अभाव हो जायगा, वह शब्दका विषय ही नहीं हो सकेगा । अतः नास्तित्व और अप्रत्यक्षत्वसे शून्य जो होगा वह अवस्तु ही होगा। इस तरह जब धर्मी ही अप्रसिद्ध हो जाता है तब अनुमान नहीं बन सकेगा।
१९-२० इन्द्रियों और तज्जनित ज्ञानोंमें नहीं पाया जानेवाला 'जो मैं देखनेवाला था वही चखनेवाला हूँ' यह एकत्व-विषयक फल, सभी इन्द्रिय द्वारोंसे जाननेवाले तथा सभी ज्ञानोंमें परस्पर एकसूत्रता कायम रखनेवाले गृहीता आत्माका सद्भाव सिद्ध करता है । 'आत्मा है' यह ज्ञान यदि संशय रूप है तो भी आत्माकी सत्ता सिद्ध होती है। क्योंकि अवस्तुका संशय नहीं होता। इसी तरह 'आत्मा है' इस ज्ञानको अनादिकालसे प्रत्येक व्यक्ति आत्माका अनुभव करता है अतः अनध्यवसाय भी नहीं कह सकते । यदि इसे विपरीत ज्ञान कहते हैं तब भी आत्माकी क्वचित् सत्ता सिद्ध हो ही जाती है क्योंकि अप्रसिद्ध पदार्थका विपर्यय ज्ञान नहीं होता। तात्पर्य यह कि 'आत्मा है' यह ज्ञान किसी भी रूपमें आत्माके अस्तित्वका ही साधक है। सम्यक् रूपमें तो आत्मसाधक है ही।
२१ बौद्धका यह पक्ष भी ठीक नहीं है कि अनेकज्ञानक्षणोंकी एक सन्तान है, इसीसे उक्त प्रत्यभिज्ञान आदि हो जाते हैं; क्योंकि उनके मतसे सन्तान संवृतिसत् अर्थात् काल्पनिक है वास्तविक नहीं। यदि इस अनेक क्षणवर्ती सन्तानको वस्तु मानते हैं तो आत्मा और सन्तानमें नाममात्रका ही अन्तर रहा-पदार्थका नहीं, क्योंकि अनेक ज्ञानादिपर्यायोंमें अनुस्यूत द्रव्यको ही आत्मा कहते हैं।
१२२-२३ यह शंका भी ठीक नहीं है कि उपयोग अस्थिर है अतः वह आत्माका
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