Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 371
________________ ३४८ तत्वार्थवार्तिक [२८ व्याप्त रहती है। फिर उन सूक्ष्म भूतोंकी सिद्धि कैसे की जायगी ? यदि ज्ञानादिके द्वारा, तो ज्ञानादिसे आत्मा की ही सिद्धि मान लेनी चाहिए। जिन इन्द्रियोंमें शराबके द्वारा बेहोशी मानते हैं वे इन्द्रियां यदि बाह्य करण हैं तो अचेतन होनेके कारण उनपर मदिराका कोई असर नहीं होना चाहिए। यदि अन्तःकरण होकर वे अचेतन हैं तो इनमें भी वेहोशी नहीं आ सकती। यदि चेतन हैं; तो यह मानना होगा कि ज्ञानरूप होनेसे ही इनपर मदिराका असर हुआ। ऐसी दशामें अमूर्त होनेसे अभिभव नहीं हो सकता' यह पक्ष स्वतः खंडित हो जाता है। यद्यपि आत्मा अनादिसे कर्मबद्ध है फिर भी उसका अपने ज्ञानादि गुणोंके कारण स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। कहा भी है “बन्धकी दृष्टिसे आत्मा और कर्ममें एकत्व होनेपर भी लक्षणकी दृष्टिसे दोनोंमें भिन्नता है । अतः आत्मामें एकान्तसे अमूर्तिकपना नहीं है।" जीवका लक्षण उपयोगो लक्षणम् ॥८॥ उपयोग जीवका लक्षण है। ११ दो प्रकारके बाह्य तथा दो प्रकारके आभ्यन्तर हेतुओंका यथासंभव सन्निधान होनेपर आत्माके चैतन्यान्वयी परिणमनको उपयोग कहते हैं । बाह्य हेतु आत्मभूत और अनात्मभूतके भेदसे दो प्रकारके हैं। आत्मासे सम्बद्ध शरीरमें निर्मित चक्षु आदि इन्द्रियां आत्मभूत बाह्य हेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु । मन बचन कायकी वर्गणाओंके निमित्तसे होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्ययोग अन्तःप्रविष्ट होनेसे आभ्यन्तर अनात्मभूत हेतु है. तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा आत्माकी विशुद्धि आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है । इन हेतुओंका यथासंभव ही सन्निधान होता है । मनुष्योंको दीपककी आवश्यकता होती है, पर रात्रिचर बिल्ली आदिको नहीं। इन्द्रियां भी एकेन्द्रियादिके यथायोग्य ही रहती हैं । असंज्ञी जीवोंके मन नहीं होता है। एकेन्द्रिय, विग्रहगतिप्राप्त जीव और समुद्घातगत सयोगकेवलीके एक काययोग ही होता है । क्षीणकषाय तक क्षयोपशमानुसार तन्निमित्तक एक ही भावयोग होता है। आगे ज्ञानावरणादिका क्षय होता है। इस तरह विभिन्न जीवोंके उपयोगके कारण भिन्न-भिन्न होते हैं। चैतन्य केवल सुख दुःख मोह रूप ही नहीं है जिससे ज्ञानदर्शनको चैतन्य कहनेसे पूर्वापर विरोध हो । चैतन्य आत्माका सामान्य असाधारण धर्म है । वह सुख दुःखादि रूप भी होता है और ज्ञान दर्शनादि रूप भी। 'समुदायवाची शब्दोंका प्रयोग अवयवोंमें भी हो जाता है' इस न्यायके अनुसार सुखदुःखादिको चैतन्य कह दिया गया है । ६२-३ परस्पर सम्मिलित वस्तुओंसे जिसके द्वारा किसी वस्तुका पृथक्करण हो वह उसका लक्षण होता है । जैसे सोना और चांदीकी मिली हुई डलीमें पीला रंग और वजन सोनेका भेदक होता है उसी तरह शरीर और आत्मामें बंधकी दृष्टिसे परस्पर एकत्व होनेपर भी ज्ञानादि उपयोग उसके भेदक आत्मभूत लक्षण होते हैं । लक्षण आत्मभूत और अनात्मभूतके भेदसे दो प्रकार का है। अग्निकी उष्णता आत्मभूत लक्षण है और दण्डी पुरुषका भेदक दंड अनात्मभूत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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