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हिन्दी-सार
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न हो अर्थात् वह स्वयं अपना प्रमेय न बन सकता हो तो अनवस्था दूषण होगा, क्योंकि उसे अपनी सत्ता सिद्ध करनेके लिए द्वितीय प्रमाणकी आवश्यकता होगी और द्वितीय प्रमाणको भी तृतीय प्रमाण की । यदि अनवस्था दूषणके निवारणके लिए ज्ञानको दीपक की तरह स्वपरप्रकाशी अर्थात् स्वप्रमेय माना जाता है तो प्रमाण और प्रमेयके भिन्न होने का पक्ष समाप्त हो जाता है । वस्तुतः संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिकी भिन्नता होनेसे प्रमाता प्रमाण और प्रमेयमें भिन्नता है तथा पृथक् पृथक् रूपसे अनुपलब्धि होनेके कारण अभिन्नता है । निष्कर्ष यह है कि प्रमेय नियमसे प्रमेय ही है किन्तु प्रमाण प्रमाण भी है और प्रमेय भी ।
११४ आगे मति और श्रुतका परोक्ष तथा अवधि आदिका प्रत्यक्ष रूपसे वर्णन है, अतः इन्हीं दो भेदोंकी अपेक्षा 'प्रमाणे' यह द्विवचन निर्देश किया गया है ।
$ १५ 'तत्' शब्दके द्वारा मति आदि ज्ञानोंमें प्रमाणताका विधान है, ये ही प्रमाण हैं सन्निकर्ष आदि नहीं ।
१६- २२ सन्निकर्षको प्रमाण और अर्थाधिगमको फल मानने पर सर्वज्ञत्व नहीं बन सकेगा, क्योंकि सकल पदार्थोंसे सन्निकर्ष नहीं बनता । सर्वज्ञके आत्मा मन इन्द्रिय और अर्थ तथा आत्मा मन और अर्थ यह चतुष्टयसन्निकर्ष और त्रयसन्निकर्ष अर्थज्ञानमें कारण नहीं हो सकता; क्योंकि मन और इन्द्रियां एक साथ प्रवृत्ति नहीं करती हैं तथा इनका विषय मर्यादित है। सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट आदि रूपसे ज्ञेय अनन्त हैं । इनका सन्निकर्ष हुए बिना इनका ज्ञान होगा नहीं, अतः सर्वज्ञत्वका अभाव हो जायगा । आत्माको सर्वगत मानकर सर्वार्थसन्निकर्ष कहना उचित नहीं है; क्योंकि आत्माका सर्वगतत्व परीक्षासिद्ध नहीं है । यदि आत्मा सर्वगत है तो उसमें क्रिया न होनेसे पुण्य पाप और पुण्य-पापमूलक संसार तथा संसारोच्छेदरूप मुक्ति आदि नहीं बन सकेंगे। इन्द्रियां तो अचेतन हैं अतः इन्हें संसार और मोक्ष नहीं हो सकता । चक्षु और मन प्राप्यकारी (पदार्थोंसे सन्निकर्ष करके जाननेवाले) नहीं हैं अतः सभी इन्द्रियोंसे सन्निकर्ष भी नहीं होता । जो इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं अर्थात् जिन स्पर्शनादि इन्द्रियोंसे पदार्थका सम्बन्ध होकर ज्ञान होता है उनके द्वारा सदा और पूर्ण रूपसे ग्रहण होना चाहिए; क्योंकि वे सर्वगत आत्माके द्वारा पदार्थोंके प्रत्येक भागसे सम्बन्धको प्राप्त हैं । यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सन्निकर्षके फल अर्थाधिगमको अर्थ में भी होना चाहिए जैसे कि स्त्री और पुरुषके संयोगका फल- सुखानुभव दोनोंका होता है । ऐसी दशामें आत्माकी तरह इन्द्रिय मन और अर्थको भी अर्थज्ञान होना चाहिए । शय्या पर सोनेवाले पुरुष के दृष्टान्तसे केवल पुरुषमें अर्थावबोध सिद्ध करना उचित नहीं है; क्योंकि शय्या अचेतन है वह सुखकी अधिकारिणी नहीं हो सकती । यदि इन्द्रिय मन और अर्थ में अचेतन होनेके कारण सन्निकर्षके फल अर्थावबोधका वारण किया जाता है तो इस युक्तिसे तो आत्मामें भी अर्थावबोध नहीं हो सकेगा, क्योंकि सन्निकर्षवादियोंके मतमें आत्मा भी ज्ञानशून्य है अर्थात् अर्थबोधके पहिले सभी अज्ञ हैं; तब अर्थावबोध आत्मामें ही हो इन्द्रिय मन और अर्थ में नहीं यह नियम कैसे बन सकता है ? ज्ञानका आत्मासे ही सम्बन्ध हो इन्द्रिय आदिसे नहीं इसमें क्या विशेष हेतु है ? 'ज्ञानका समवाय आत्मामें ही होता है अन्य में नहीं' यह उत्तर भी विवाद रहित नहीं है क्योंकि जब सभी ज्ञानशून्य हैं तब 'आत्मा में ही ज्ञानका समवाय हो अन्य में नहीं' यही प्रतिनियम नहीं बन सकता । समवाय
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