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२७] हिन्दी-सार
३४३ मोहनीयके सिवाय सात कर्मों के उदयसे और सयोगी तथा अयोगीमें चार अघातिया कर्मों के उदयसे असिद्धत्व भाव होता है ।
८ कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है । द्रव्यलेश्या पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्मके उदयसे होती है अतः आत्मभावोंके प्रकरणमें उसका ग्रहण नहीं किया है । यद्यपि योगप्रवृत्ति आत्मप्रदेश परिस्पन्द रूप होनेसे क्षायोपशमिक वीर्यलब्धिमें अन्तर्भूत हो जाती है और कषाय औदयिक होती है फिर भी कषायोदयके तीव्र मन्द आदि तारतम्यसे अनुरंजित लेश्या पृथक् ही है। आत्मपरिणामोंके अशुद्धि तारतम्यकी अपेक्षा लेश्याके कृष्ण नील कापोत पीत पद्म और शुक्ल ये छह भेद हो जाते हैं।
यद्यपि उपशान्तकषाय क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थानोंमें कषायका उदय नहीं है फिर भी वहां भूतपूर्व प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा शुक्ल लेश्या उपचारसे कही है । 'जो योगप्रवृत्ति पहिले कषायानुरंजित थी वही यह है' इस तरह एकत्व उपचारका निमित्त होता है । चूंकि अयोगीमें योगप्रवृत्ति भी नहीं है अतः वे अलेश्य कहे जाते हैं।
९-११ मिथ्यादर्शनमें दर्शनावरणके उदयसे होनेवाले अदर्शनका अन्तर्भाव हो जाता है । यद्यपि मिथ्यादर्शन तत्त्वार्थाश्रद्धान रूप है फिर भी अदर्शन सामान्यमें दर्शनाभाव रूपसे दोनों प्रकारके दर्शनोंका अभाव ले लिया जाता है। लिंगके सहचारी हास्य रति आदि छह नोकषाय लिंगमें ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। गति अघातिकर्मोदयका उपलक्षण है, इससे नाम कर्म वेदनीय आयु और गोत्रकर्मके उदयसे होनेवाले यावत् जीवविपाकी भाव गृहीत हो जाते हैं। सूत्रमें 'यथाक्रम' का अनुवर्तन करके गति आदिका चार आदिके साथ क्रमशः सम्बन्ध कर लेना चाहिये। पारिणामिक भाव
जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥७॥ जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन अन्य द्रव्यमें न पाए जानेवाले आत्माके पारिणामिक भाव हैं।
१-२ कर्मके उदय उपशम क्षय और क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखनेवाले मात्र द्रव्यकी स्वभावभूत अनादि पारिणामिकी शक्तिसे ही आविर्भूत ये भाव पारिणामिक हैं।
३-६ यदि आयु नामक कर्म पुद्गलके सम्बन्धसे जीवत्व माना जाय तो उस कर्म पुद्गलका सम्बन्ध तो धर्म अधर्म आदि द्रव्योंसे भी है अतः उनमें भी जीवत्व होना चाहिए और सिद्धोंमें कर्म सम्बन्ध न होनेसे जीवत्वका अभाव हो जाना चाहिए, अतः अनादि पारिणामिक जीवद्रव्यका निज परिणाम ही जीवत्व है । 'जीवति अजीवीत् जीविष्यति' यह प्राणधारणकी अपेक्षा जो व्युत्पत्ति है वह केवल व्युत्पत्ति है उससे कोई सिद्धान्त फलित नहीं होता जैसे कि 'गच्छतीति गौः' से मात्र गोशब्दकी व्युत्पत्ति ही होती है न कि गौका लक्षण आदि। जीवका वास्तविक अर्थ तो चैतन्य ही है और वह अनादि पारिणामिक द्रव्य निमित्तक है।
७--९ सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र पर्याय जिसकी प्रकट होगी वह भव्य है और जिसके प्रकट न होगी वह अभव्य । द्रव्यकी शक्तिसे ही यह भेद है । उस भव्यको जो अनन्तकालमें भी सिद्ध नहीं होगा, अभव्य नहीं कह सकते, क्योंकि उसमें भव्यत्वशक्ति
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