Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 362
________________ २४] हिन्दी-सार ३३९ (१) भव्य जीवके अर्धपुद्गलपरिवर्तन रूप समय शेष रहनेपर वह सम्यक्त्वके योग्य होता है अधिक कालमें नहीं। (२) जब कर्म उत्कृष्ट स्थिति या जघन्य स्थितिमें बँध रहे हों तब प्रथम सम्यक्त्व नहीं होता किन्तु जब कर्म अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरकी स्थितिमें बँध रहे हों तथा पूर्वबद्ध कर्म परिणामोंकी निर्मलताके द्वारा संख्यात हजार सागर कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरकी स्थितिवाले कर दिए गये हों तब प्रथम सम्यक्त्वकी योग्यता होती है। (३) तीसरी काललब्धि भवकी अपेक्षा है । सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें जातिस्मरण वेदना आदि भी निमित्त होते हैं। भव्य पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक परिणामोंकी विशुद्धिसे अन्तर्मुहूर्तमें ही मिथ्यात्व कर्मके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यङमिथ्यात्व रूपसे तीन विभाग कर देता है। ____ उपशम सम्यग्दर्शन चारों ही गतियोंमें होता है । सातों नरकोंमें पर्याप्तक ही नारकी जीव अन्तमहूर्तके बाद प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते हैं। तीसरे नरक तक जातिस्मरण, वेदनानुभव और धर्मश्रवण इन तीन कारणोंसे तथा आगे धर्मश्रवणके सिवाय शेष दो कारणोंसे सम्यक्त्वका लाभ हो सकता है। सभी द्वीप समुद्रोंके पर्याप्तक ही तिर्यञ्च दिवस पृथक्त्व (तीनसे ऊपर ८ से नीचेकी संख्याको पृथक्त्व कहते हैं) के बाद सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते हैं। तिर्यञ्चोंके जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनप्रतिमाका दर्शन ये तीन सम्यवत्वोत्पत्तिके निमित्त हैं। ढाई द्वीपके पर्याप्तक ही मनुष्य आ० वर्षकी आयके बाद जातिस्मरण धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन रूप किसी भी कारण से सम्यवस्त लाभ करते हैं। अन्तिम ग्रेवेयक तकके पर्याप्तक ही देव अन्तर्मुहुर्तके बाद ही सम्यवत्व लाभ कर सकते हैं। भवनवासी आदि सहस्रार स्वर्ग तकके देव जातिस्मरण धर्मश्रवण जिनमहिमा-दर्शन तथा देवैश्वर्य-निरीक्षण रूप किसी भी कारणसे सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं। आनत आदि चार स्वर्गवासी देवोंमें देव-ऋद्धि निरीक्षणके सिवाय तीन कारण और नव ग्रैवेयेकवासी देवोंमें देव-ऋद्धि निरीक्षण और जिनमहिमा दर्शनके बिना शेष दो कारणोंसे सम्यक्त्वोपत्ति हो सकती है। अवेयेकसे ऊपरके देव नियमसे सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। ३ अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान और संज्वलन क्रोध मान माया लोभ ये सोलह कषाय, हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुसकवेद ये ९ नोकषाय, मिथ्यात्व सम्यङमिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन दर्शनमोह इस प्रकार अट्ठाईस मोह प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक चारित्र होता है। ६४ औपशमिक सम्यग्दर्शन होनेके बाद ही क्रमशः औपशमिक चारित्र होता है अतः पूज्य होनेसे उसका प्रथम ग्रहण किया है। क्षायिकभाव ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ केवलज्ञान, केवलदर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य और चशब्दसे सम्यक्त्व और चारित्र ये नव क्षायिकभाव हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454