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तत्त्वार्थवार्तिक
[२३ हैं तथा एकविंशति शब्द संख्याप्रधान। उत्तर-निमित्तानुसार द्वि आदि शब्द भी संख्याप्रधान हो जाते हैं जैसे राजा स्वयं समय समयपर मन्त्रीको प्रधानता देता है। प्रश्न-तर्क से कैसा ही समाधान हो जाय पर व्याकरण शास्त्रमें स्पष्ट कहा है कि दो से १९ तकके अंक संख्येय प्रधान ही होते हैं तथा बीस आदि कभी संख्याप्रधान और कभी संख्येयप्रधान । यदि दो आदि शब्द भी कदाचित् संख्यावाची हों तो बीस आदिके समान ही इनकी स्थिति हो जायगी ऐसी दशामें 'विंशतिर्गवाम्' की तरह सम्बन्धीमें षष्ठी विभक्ति और स्वयंमें एकवचनान्त प्रयोग होना चाहिए। व्याकरणमें ही जो 'द्वयेकयोः' यह संख्याप्रधान प्रयोग देखा जाता है वह संख्यार्थक नहीं है किन्तु जिसके अवयव गौण हैं ऐसे समुदायके अर्थमें है, जैसे कि 'बहुशक्तिकिटक वनम्'-शक्तिशाली शूकरोंवाला वन । उत्तर-संख्याप्रधान होनेपर भी इन्हें संख्येय विषयक मान लेते हैं। 'भावप्रत्ययके बिना भी गुणप्रधान निर्देश हो जाता है' यह नियम है। इस तरह दो आदि शब्द जब संख्येय प्रधान हो गये और एकविंशति शब्द भी संख्येय प्रधान तब तुल्ययोग होनेसे द्वन्द्व समास होने में कोई बाधा नहीं है।
भेद शब्दसे द्विआदि शब्दोंका स्वपदार्थ प्रधान समास है। विशेषणविशेष्य समास में 'दो नव आदि ही भेद' ऐसा स्वपदार्थप्रधान निर्देश हो जाता है।
प्रश्न-'द्वियमुनम्' आदिमें पूर्वपदार्थप्रधान समास होता है, अतः द्वि आदि शब्दोंको विशेष्य और भेद-शब्दको विशेषण मानने में भेद शब्दका पूर्वनिपात होना चाहिये ? ।
उत्तर-सामान्योपक्रममें विशेष कथन होनेपर वह नियम लागू होता है । 'के?' कहनेसे 'द्वे यमुने' यह उत्तर मिलता है पर 'यमने' यह कहनेपर दो शब्द निरर्थक हो जाता है। परन्तु यहां बहुत होनेसे सन्देह होता है-'भेदाः' यह कहनेपर 'कति' यह सन्देह बना रहता है और 'द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयः' कहनेपर 'के ते?' यह सन्देह रहता है अतः उभयव्यभिचार होनेसे विशेषण विशेष्य भाव इष्ट है। दो आदि गणवाचक हैं अतः विशेषण हैं । अथवा 'दो आदि हैं भेद जिनके' इस प्रकार अन्यपदार्थप्रधान भी समास किया जा सकता है। संख्या शब्दोंका विशेष्य होनेपर भी 'सर्वनामसंख्ययोरुपसंख्यानम्' सूत्रसे पूर्व निपात हो जायगा। पूर्वसूत्र में कहे गये औपशमिक आदिका अर्थवश विभक्ति परिणमन कराके 'औपशमिकादीनाम्' के रूपमें सम्बन्ध कर लिया जायगा।
३ भेद शब्दका सम्बन्ध प्रत्येकमें कर लेना चाहिये, जैसे कि 'देवदत्त जिनदत्त गुरुदत्तको भोजन कराओ' यहां भोजनका सम्बन्ध प्रत्येकसे हो जाता है। 'यथाक्रमम्' शब्द दो आदिका निर्देशानुसार औपशमिक आदि भावोंसे क्रमशः सम्बन्ध सूचित करता है । औपशमिक भाव
सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥ औपशमिक सम्यग्दर्शन और औपशमिकचारित्र ये दो औपशमिक भाव हैं।
६१-२ मिथ्यात्व, सम्यङमिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन दर्शनमोह तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार चारित्रमोह, इस प्रकार इन सात कर्मप्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। अनादिमिथ्यादृष्टि भव्य के काललब्धि आदिके निमित्तसे यह सम्यग्दर्शन होता है । काललब्धि अनेक प्रकारकी है । जैसे
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