Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 360
________________ २२ ] हिन्दी-सार ३३७ आत्माका ज्ञान किया जाता है । मनुष्य तिर्यञ्च आदि गतिभाव और चैतन्य आदि भाव ही जीवके परिचायक होते हैं । इसलिए सर्वसाधारण होनेसे दोनोंको अन्तमें ग्रहण किया है । 8 १६ - १८ जैसे 'गायें धन है' यहाँ गायोंके भीतरी संख्याकी विवक्षा न होनेसे सामान्य रूपसे एक वचन धनके साथ सामानाधिकरण्य बन जाता है उसी तरह औपशमिक आदि भीतरी भेदकी विवक्षा न करके सामान्य स्वतत्त्व की दृष्टिसे 'स्वतत्त्वम्' यह एकवचत्र निर्देश है । अथवा 'औपशमिक स्वतत्त्व है क्षायिक स्वतत्त्व है' इस प्रकार प्रत्येकके साथ स्वतत्त्वका सम्बन्ध कर लेना चाहिए । ११९ - २० सूत्रमें यदि द्वन्द्व समास किया जाता तो दो 'च' शब्द नहीं देने पड़ते फिर भी 'मिश्र' शब्दसे औपशमिक और क्षायिकसे भिन्न किसी तृतीय ही भावके ग्रहणका अनिष्ट प्रसङ्ग प्राप्त होता अतः द्वन्द्व समास नहीं किया गया है। ऐसी दशामें 'च' शब्दसे उपशम और क्षयका मिला हुआ मिश्र भाव ही लिया जायगा । ' क्षायोपशमिक ' शब्द ग्रहणसे तो शब्दगौरव हो जाता है । 8 २१ मध्य में 'मिश्र' शब्दके ग्रहणका प्रयोजन यह है कि भव्य जीवोंके औपशमिक और क्षायिकके साथ मिश्र भाव होता है और अभव्योंके औदयिक और पारिणाfood साथ मिश्र भाव होता है । इस तरह पूर्व और उत्तर दोनों ओर 'मिश्र' का सम्बन्ध हो जाय । १ २२ सूत्रगत 'जीवस्य' यह पद सूचित करता है कि ये भाव जीवके ही हैं अन्य द्रव्यों नहीं । 8 २३-२५ प्रश्न- आत्मा औपशमिकादि भावोंको यदि छोड़ता है तो स्वतत्त्व के छोड़नेसे उष्णताके छोड़नेपर अग्निकी तरह अभाव अर्थात् शून्यताका प्रसंग होता है और यदि नहीं छोड़ता तो औदयिक आदि भावोंके बने रहने से मोक्ष नहीं हो सकेगा ? उत्तरअनेकान्तवादमें अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्यकी दृष्टि से स्वभावका अपरित्याग और आदिमान् औदक आदि पर्यायोंकी दृष्टिसे स्वभावका त्याग ये दोनों ही पक्ष बन जाते हैं । फिर स्वभावके त्याग या अत्यागसे तो मोक्ष होता नहीं है, मोक्ष तो सम्यग्दर्शनादि अन्तःकरणोंसे संपूर्ण कर्मोंका क्षय होनेपर होता है । अग्नि उष्णताको छोड़ भी दे तो भी उसका सर्वथा अभाव नहीं होता; क्योंकि जो पुद्गल अग्नि पर्यायको धारण किए था वह अन्य रूपस्पर्श वाली दूसरी पर्यायको धारण करके पुद्गल द्रव्य बना रहता है। जैसे कि निद्रा आदि अवस्थाओं में रूपोपलब्धि न रहनेपर भी नेत्रका अभाव नहीं माना जाता, अथवा केवली अवस्था में मतिज्ञानरूप रूपोपलब्धि न होने पर भी द्रव्यनेत्र रहने से नेत्रका अभाव नहीं माना जाता । उसी तरह मोक्षावस्थामें भी क्षायिक भावोंके विद्यमान रहनेसे कर्मनिमित्तक औयिकादि भावोंका नाश होनेपर भी आत्माका अभाव नहीं होता । औपशमिकादि भावोंके भेद द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥२॥ इन भावों के क्रमशः दो नव अठारह इक्कीस और तीन भेद हैं । 8१-२ द्विनव आदि शब्दों का इतरेतरयोगार्थक द्वन्द्व समास है । प्रश्न - इतरेतरयोग तुल्ययोगमें होता है किन्तु यहाँ तुल्ययोग नहीं है क्योंकि द्वि आदि शब्द संख्येय प्रधान ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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