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तरवार्थवार्तिक
[१।१० अनवस्था दूषण आता है ? इच्छा मात्रसे किसीकी स्वतः सिद्धि और किसीकी परतःसिद्धि मानने में कोई विशेष हेतु देना चाहिए अन्यथा स्वेच्छाचारित्वका दोष आयगा ।
उत्तर-जिस प्रकार दीपक घटादि पदार्थों के साथ ही साथ स्वस्वरूपका भी प्रकाशक है उसी तरह प्रमाण भी। प्रमाण या दीपकको स्वस्वरूपके प्रकाशनके लिए प्रमाणान्तर या प्रदीपान्तरकी आवश्यकता नहीं होती। जिस प्रकार एक ही प्रदीप 'प्रदीपनं प्रदीप:-प्रदीपन मात्र प्रदीप, प्रदीपयति प्रदीप:-प्रदीपन करनेवाला प्रदीप, प्रदीप्यतेऽनेन-जिसके द्वारा प्रदीपन हो वह प्रदीप' इन तीन साधनोंमें व्यवहृत होता हैं उसमें न तो कोई विरोध ही आता है और न अनवस्था ही ; उसी तरह प्रमाणको भी तीनों साधनों में व्यवहार करने में कोई विरोध या अनवस्था नहीं है।
३-५ यदि प्रमाण स्वसंवेदी न हो तो परसंवेद्य होनेके कारण वह प्रमाण ही नहीं हो सकता; क्योंकि परसंवेद्य तो प्रमेय होता है । यदि घटज्ञान स्वाकारका परिच्छेदक नहीं है तो घटज्ञान और घट दोनोंमें अन्तर नहीं हो सकेगा क्योंकि दोनोंमें समानरूपसे विषयाकारता ही रहती है। इसी तरह घटज्ञान ज्ञौर घटज्ञानका ज्ञान इन दोनों ज्ञानोंमें अस्वसंवेदन दशामें कोई अन्तर नहीं होगा क्योंकि जैसे घटज्ञानमें विषयाकारता रहेगी वैसे ही घटज्ञानज्ञानमें भी अन्ततः विषयाकारता ही विषय पड़ेगी, स्वाकार नहीं । यदि ज्ञान स्वसंवेदी न हो तो उसे 'ज्ञोऽहम्-मैं जाननेवाला हूं' यह स्मृति उत्तरकालमें नहीं हो सकेगी। इसी तरह जिस ज्ञानने अपने स्वरूपको नहीं जाना उस ज्ञानके द्वारा ज्ञात अर्थकी स्मृति नहीं हो सकेगी जैसे कि पुरुषान्तरके ज्ञानके द्वारा जाने गए पदार्थों की । पुरुषान्तरके ज्ञेयकी स्मृति हमें इसीलिए नहीं होती कि हम उसके ज्ञानको नहीं जानते। यदि हमारा भी ज्ञान हमें अज्ञात हो तो उस ज्ञानके द्वारा ज्ञात अर्थकी स्मृति हमें स्वयं नहीं हो सकेगी।
६-७ प्रश्न-यदि भावसाधनमें प्रमाको प्रमाण कहा जाता है तो फलका अभाव हो जायगा। प्रमा ही फल होती थी। उत्तर-अर्थावबोधमें जो प्रीति होती है वही फल है, कर्ममलिन आत्माको इन्द्रियादिके द्वारा जब अर्थावबोध होता है तो उसे प्रीति होती है, वही प्रमाणका फल है। प्रमाणका मुख्य फल अज्ञाननिवृत्ति है। इसी तरह राग और द्वेषरूप वृत्ति न होकर उपेक्षा भावका होना भी प्रमाणका फल है।
८-९ प्रश्न-प्रमाण शब्दको कर्तृसाधन मानने पर वह प्रमाता रूप हो जाता है, पर, प्रमाता तो आत्मा होता है जो कि गुणी है और प्रमाण तो ज्ञान रूप गुण है, गुण और गुणी तो जुदे होते हैं। कहा भी है कि-"आत्मा मन इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भिन्न है" अतः प्रमाणशब्दको कर्तृसाधन न मानकर करणसाधन मानना ही उचित है। उत्तर-यदि ज्ञानको आत्मासे सर्वथा भिन्न माना जाता है तो आत्मा घटकी तरह अज्ञ-ज्ञानशूल्य जड हो जायगा । ज्ञानके सम्बन्धसे 'ज्ञ' कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि अन्धेको जैसे दीपकका संयोग होने पर भी दिखाई नहीं देता यतः वह स्वयं दष्टिशन्य है उसी तरह ज्ञानस्वभावरहित आत्मामें ज्ञानका सम्बन्ध होनेपर भी शत्व नहीं आ सकेगा।
१०-१३ प्रश्न-जैसे दीपक जुदा है और घड़ा जुदा, उसी तरह जो प्रमाण है वह प्रमेय नहीं हो सकता और जो प्रमेय है वह प्रमाण नहीं। दानोंके लक्षण भिन्न भिन्न हैं। उत्तर-जिस प्रकार बाह्य प्रमेयोंसे प्रमाण जुदा है उसी तरह उसमें यदि अन्तरङ्ग प्रमेयता
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