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३०० तत्त्वार्थवार्तिक
[१।११-१२ एक और सर्वगत है और आत्मा आदि सभी समान रूपसे ज्ञानशून्य हैं तब क्या कारण है कि समवाय 'आत्मामें ही ज्ञानका सम्बन्ध कराता है अन्यमें नहीं ?' अतः सन्निकर्षको प्रमाण मानना उचित नहीं है। परोक्ष ज्ञानका वर्णन
आय परोक्षम् ॥११॥ आदिके मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं।
११ आदि शब्द प्रथम प्रकार व्यवस्था समीपता अवयव आदि अनेक अर्थोमें. प्रयुक्त होता है फिर भी यहाँ विवक्षासे उसका 'प्रथम' अर्थ लेना चाहिए।
६२-५ प्रश्न-यदि आदि शब्दका 'प्रथम' अर्थ है तो श्रुतका ग्रहण नहीं हो सकेगा क्योंकि सूत्रमें तो मतिका प्रथम निर्देश हुआ है। यह समाधान तो उचित नहीं है कि 'श्रुत अवधिकी अपेक्षा प्रथम है'; क्योंकि इसमें तो केवलज्ञानके सिवाय सभी अपने उत्तर ज्ञानकी अपेक्षा आदि हो सकते हैं। द्विवचनका निर्देश होनसे श्रुतका ग्रहण करने में तो विवाद ही है कि किन दोका ग्रहण करना चाहिए ? उत्तर-निकटताके कारण श्रुतका ग्रहण किया जाना चाहिए। द्विवचन निर्देशसे जिस दूसरेका ग्रहण करना है वह प्रथम मतिका समीप-निकट होना चाहिए। समीपताके कारण श्रुतको भी 'आद्य' कह सकते हैं । एक तो सूत्रमें मतिके पास श्रुतका ग्रहण है दूसरे दोनों करीब-करीब समानविषयक और समस्वामिक होनेसे परस्पर निकट हैं।
६६-७ उपात्त-इन्द्रियां और मन तथा अनुपात्त-प्रकाश उपदेश आदि 'पर' हैं । परकी प्रधानतासे होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। जैसे गतिस्वभाववाले पुरुषका लाठी आदिकी सहायतासे गमन होता है उसी प्रकार ज्ञस्वभाव आत्माको मतिश्रुतावरणका क्षयोपशम होनेपर भी इन्द्रिय और मन रूप परद्वारोंसे ही ज्ञान होता है। यह ज्ञान पराधीन होनेसे परोक्ष है । परोक्षका अर्थ अज्ञान या अनवबोध नहीं है किन्तु पराधीन ज्ञान । प्रत्यक्ष ज्ञान
प्रत्यक्षमन्यत् ॥१२॥ . अन्य अवधि मनःपर्यय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
६१ इन्द्रिय और मनकी अपेक्षाके बिना व्यभिचाररहित जो साकार ग्रहण होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। 'अतत्' को 'तत्' रूपसे ग्रहण करना व्यभिचार है, प्रत्यक्ष 'तत्' को 'तत्' जानता है अतः अव्यभिचारी है । इस विशेषणसे विभङ्ग-कुअवधिका निराकरण हो जाता है क्योंकि यह मिथ्यादर्शनके उदयसे व्यभिचारी-अन्यथा ग्राहक होता है । आकार अर्थात् विकल्प, जो ज्ञान सविकल्प अर्थात् निश्चयात्मक है वह साकार है। इस विशेषणसे अवधिदर्शन और केवलदर्शनका निराकरण हो जाता है क्योंकि ये अनाकार हैं। इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष विशेषण मति और श्रुत ज्ञानकी व्यावृत्ति कर देता है क्योंकि ये ज्ञान इन्द्रियमनोजन्य हैं।
२-३ प्रत्यक्ष लक्षणमें कहे गए विशेषण सूत्रसे ही प्रतीत होते हैं, ऊपरसे नहीं मिलाए गए हैं । यथा, 'अक्ष अर्थात् आत्मा, जो ज्ञान प्रक्षीणावरण या क्षयोपशमप्राप्त
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