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तत्त्वार्थवार्तिक
[ १।३३
से पार्थिव मोतीकी, लकड़ीसे अग्नि आदिकी उत्पत्ति देखी जाती है । भिन्नजातीयों में केवल समुदायकी कल्पना करना तुल्यजातीयों में भी समुदायमात्रको ही सिद्ध करेगी, कार्योत्पत्ति को नहीं । निष्क्रिय और निर्विकारी आत्मा कर्त्ता भी नहीं हो सकता । आत्माका अदृष्ट गुण भी चूंकि निष्क्रिय है अतः वह भी भिन्न पदार्थोंमें क्रिया उत्पन्न नहीं कर सकेगा ।
atar की मान्यता है कि वर्णादिपरमाणुसमुदयात्मक रूप परमाणुओंका संचय ही इन्द्रियग्राह्य होकर घटादि व्यवहारका विषय होता है । इनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि जब प्रत्येक परमाणु अतीन्द्रिय है तो उनसे अभिन्न समुदाय भी इन्द्रियग्राह्य नहीं हो सकता । जब उनका कोई दृश्य कार्य सिद्ध नहीं होता तब कार्यलिङ्गक अनुमानसे परमाणुओं की सत्ता भी सिद्ध नहीं की जा सकेगी। परमाणु चूंकि क्षणिक और निष्क्रिय हैं अतः उनसे कार्योत्पत्ति भी नहीं हो सकती । विभिन्न शक्तिवाले उन परमाणुओंका परस्पर स्वतः सम्बन्धकी संभावना नहीं है और अन्य कोई सम्बन्धका कर्ता हो नहीं सकता । तात्पर्य यह कि परस्पर सम्बन्ध नहीं होने के कारण घटादि स्थूल कार्योंकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी । इसी तरह बिगड़े पित्तवाले रोगीको रसनेन्द्रियके विपर्ययकी तरह अनेक प्रकारके विपर्यय मिथ्यादृष्टिको होते रहते हैं ।
चारित्र मोक्षका प्रधान कारण है अतः उसका वर्णन मोक्षके प्रसङ्गमें किया जायगा । केवलज्ञान हो जानेपर भी जब तक व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यानरूप चरम चारित्र नहीं होता तब तक मुक्तिकी संभावना नहीं है । अब नयोंका निरूपण करते हैं
नैगम
संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूता नयाः ||३३||
शब्दकी अपेक्षा नयोंके एकसे लेकर अंख्यात विकल्प होते हैं । यहाँ मध्यमरुचि शिष्योंकी अपेक्षा सात भेद बताए हैं ।
११ प्रमाणके द्वारा प्रकाशित अनेकधर्मात्मक पदार्थके धर्मविशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान नय है। नयके मूल दो भेद हैं- एक द्रव्यास्तिक और दूसरा पर्यायास्तिक । our अस्तित्वको ग्रहण करनेवाला द्रव्यास्तिक और पर्यायमात्रके अस्तित्वको ग्रहण करनेवाला पर्यायास्तिक है । अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ है - गुण और कर्म आदि द्रव्यरूप ही हैं वह द्रव्यार्थिक और पर्याय ही जिसका अर्थ है वह पर्यायाथिक । पर्यायार्थिकका विचार है कि अतीत और अनागत चूँकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं अतः उनसे कोई व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता अतः वर्तमान मात्र पर्याय ही सत् है । द्रव्यार्थिकका विचार है कि अन्वयविज्ञान, अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मोका लोप नहीं किया जा सकता, अतः द्रव्य
अर्थ है ।
१२- ३ अर्थके संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाला नैगमुनय है । जैसे प्रस्थ बनाने के निमित्त जंगल से लकड़ी लेनेके लिए जानेवाले फरसाधारी किसी पुरुष से पूछा कि 'आप कहाँ जा रहे हैं ?' तो वह उत्तर देता है कि 'प्रस्थ के लिए' । अथवा, 'यहां कौन जा रहा है ? ' इस प्रश्न के उत्तर में 'बैठा हुआ' कोई व्यक्ति कहे कि 'मैं जा रहा हूँ' । इन दोनों दृष्टान्तों में प्रस्थ और गमन के संकल्प मात्र में वे व्यवहार किये गये हैं । इसी तरहके सभी व्यवहार नैगमनके विषय हैं। यह नैगमनय केवल भाविसंज्ञा व्यवहार ही नहीं है, क्योंकि वस्तुभूत राजकुमार या चावलों में योग्यता के आधारसे राजा या भात संज्ञा भाविसंज्ञा कहलाती है पर
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