Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 342
________________ १।२१] हिन्दी-सार नियम है उन्हें कालिक कहते हैं तथा जिनके पठन-पाठनका कोई नियत समय न हो वे उत्कालिक हैं। उत्तराध्ययन आदि अंगबाह्य ग्रन्थ हैं। १५ अनुमान आदिका स्वप्रतिपत्ति कालमें अनक्षरश्रुतमें अन्तर्भाव होता है तथा परतिपत्ति कालमें अक्षरश्रुत में। इसीलिए इनका पृथक् उपदेश नहीं किया है। प्रत्यक्षपूर्वक तीन प्रकारका अनुमान होता है-पूर्ववत् शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट । अग्नि और धूमके अविनाभावको जिस व्यक्तिने पहिले ग्रहण कर लिया है उसे पीछे धूमको देखकर अग्निका ज्ञान होना पूर्ववत् अनुमान है । जिसने सींग और सींगवालेके सम्बन्धको देखा है उसे सींगके रूपको देखकर सींगवालेका अनुमान होना शेषवत् है । देवदत्तका देशान्तरमें पहुंचना गमनपूर्वक होता है, यह देखकर सूर्यमें देशान्तर प्राप्तिरूप हेतुसे गतिका अनुगान करना सामान्यतोदृष्ट है । 'गाय सरीखा गवय होता है' इस उपमान वाक्यको सुनकर जंगलमें गवयको देखकर उससें गवय संज्ञाके सम्बन्धको जान लेना उपमान है। शब्द प्रमाण तो श्रुत है ही। 'भगवान् ऋषभने यह कहा' इत्यादि प्राचीन परम्परागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है । 'यह आदमी दिनको नहीं खाकर भी जीता है' इस वाक्यको सुनकर अर्थात् ही 'रात्रिको खाता है' इस प्रकार रात्रि भोजनका ज्ञान कर लेना अर्थापत्ति है। 'चार प्रस्थका आढक होता है' इस ज्ञानके होनेपर एक आढकमें दो कुडव (आधा आढक) हैं इस प्रकारकी संभावना संभव प्रमाण है । वनस्पतियोंमें हरा भरापन आदि न दिखनेपर वृष्टिके अभावका ज्ञान करना अभाव प्रमाण है। ये सभी अर्थापत्ति आदि अनुमानमें अन्तर्भूत हैं, अतः अनुमानकी तरह स्वप्रतिपत्तिकालमें अनक्षरश्रुत हैं तथा परप्रतिपत्तिकालमें अक्षरश्रुत । प्रत्यक्ष दो प्रकार का है देशप्रत्यक्ष और सर्वप्रत्यक्ष । देशप्रत्यक्षके अवधि और मनःपर्यय दो प्रकार हैं और सर्वप्रत्यक्ष एक केवल ज्ञानरूप है। अवधि-ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे द्रव्यक्षेत्रादिसे मर्यादित रूपीद्रव्यका ज्ञान अवधिज्ञान है । अवधिज्ञान दो प्रकार का है-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । अथवा देशावधि और सर्वावधि ये दो भेद भी होते हैं। परमावधि सर्वांवधि की अपेक्षा न्यून होनेसे देशावधिमें ही गिन ली गई है। भवप्रत्यय अवधिका स्वरूप भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम् ॥२१॥ भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है। ६१-६ भव अर्थात् आयु और नामकर्मके उदयसे प्राप्त होनेवाली पर्याय, प्रत्यय अर्थात् निमित्त । भवको निमित्त लेकर जो अवधि ज्ञानावरणके क्षयोपशम पूर्वक ज्ञान होता है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। प्रत्यय शब्दके ज्ञान शपथ हेतु आदि अनेक अर्थ हैं, पर यहां 'निमित्त' अर्थकी विवक्षा है । देव और नारकी पर्यायमें जन्म लेते ही अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम हो जाता है और उससे अवधिज्ञान होता है। जैसे आकाश पक्षीके उड़ने में निमित्त मात्र है क्योंकि आकाशके रहने पर ही पक्षी उड़ सकता है उसी तरह भव बाह्य निमित्त है। यदि भव ही मुख्य कारण होता तो सभी देव नारकियोंके एक जैसा तुल्य अवधिज्ञान होता पर उनमें अपने अपने क्षयोपशमके अनुसार तारतम्य आगममें स्वीकार किया गया है। जैसे मनुष्य और तिर्य नोंको अहिंसादिवतरूप गुणोंसे अवधिज्ञान होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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