Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 341
________________ [२२० तस्वार्थवार्तिक विस्तारवाले हैं। नीचे कलकल पृथ्वीके नीचे क्रमश: ७,५ और ४ योजन विस्तृत हैं। नीचे लोकमूलमें चौड़ाई ७ राजू है। मध्यलोकमें एक राजू, ब्रह्मलोकमें पांच राजू और लोकानमें एक राजू है । लोकमध्यसे एक रज्जु नीचे शर्करा प्रभाके अन्तमें आठों दिशाओंमें चौड़ाई १७ राजू है, उससे एक रज्जू नीचे वालुकाप्रभाके अन्तमें २७ राजू, फिर एक राजू नीचे पंक प्रभाके अन्तमें ३१ राजू, फिर एक राजू नीचे धूमप्रभाके अन्तमें ४ राजू, फिर एक राजू नीचे तमःप्रभाके अन्तमें ५४ राजू, फिर एक राजू नीचे महातमःप्रभाके अन्तमें ६६ राजू, फिर एक राजू नीचे कलकल पृथ्वीके अन्तमें ७ राजू चौड़ाई है। इसी तरह लोकमध्यसे एक राजू ार २३ राजू, फिर एक राजू ऊपर ३३ राजू, फिर एक राजू ऊपर ४३ राजू, फिर आधी राजू ऊपर जाने पर ५ राजू विस्तार है । फिर आधी राजू ऊपर जाकर ४ राजू, फिर एक राजू ऊपर ३३ राजू, फिर एक राजू ऊपर २७ राजू, फिर एक राजू ऊपर लोकान्तमें एक राजू विस्तार है। वेदना आदि निमित्तोंसे कुछ आत्मप्रदेशोंका शरीरसे बाहिर निकलना समदघात है; वह सात प्रकारका है-वात पित्तादि विकार-जनित रोग या विषपान आदिकी तीव्र वेदनासे आत्मप्रदेशोंका बाहिर निकलना वेदना समुद्धात है। क्रोधादि कषायोंके निमित्तसे कषाय समुद्धात होता है। उदीरणा या कालक्रमसे होनेवाले मरणके निमित्तसे मारणान्तिक समुद्घात होता है । जीवोंके अनुग्रह और विनाशमें समर्थ तैजस शरीरकी रचनाके लिए तेजस समुद्घात होता है । एकत्व पृथक् आदि नाना प्रकारकी विक्रियाके निमित्तसे वैक्रियिक समुद्घात होता है । अल्पहिंसा और सूक्ष्मार्थ परिज्ञान आदि प्रयोजनोंके लिए आहारक शरीरकी रचनाके निमित्त आहारक समुद्धात होता है। जब वेदनीयकी स्थिति अधिक हो और आयु कर्मकी अल्प तब स्थिति-समीकरणके लिए केवली भगवान् केवलिंसमुद्घात करते हैं। जैसे मदिरामें फेन आकर शान्त हो जाता है उसी तरह समुद्धातमें आत्म-प्रदेश बाहिर निकलकर फिर शरीरमें समा जाते हैं । अहारके और मारणान्तिक समुद्घात एक दिशामें होते हैं; क्योंकि आहारक शरीरकी रचनाके समय श्रेणिगति होनेके कारण एक ही दिशामें असंख्य आत्मप्रदेश निकलकर एक अरनि प्रमाण आहारक शरीरको बनाते हैं। मारणान्तिकमें जहां नरक आदिमें जीवको मरकर उत्पन्न होना है वहांकी ही दिशामें आत्मप्रदेश निकलते हैं। शेष पांच समुद्धात श्रेणिके अनुसार ऊपर नीचे पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण इन छहों दिशाओंमें होते हैं। वेदना आदि छह समुद्घातोंका काल असंख्यात समय है और केवलि समुद्घातका काल आठ समय है। दण्ड, कवाट, प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर, कपाट, दंड और स्वशरीर-प्रवेश इस तरह आठ समय होते हैं। क्रियाविशाल पूर्वमें सूर्य चन्द्र ग्रह नक्षत्र तारागणोंका गमनक्षेत्र, उपपादक्षेत्र, शकुन, चिकित्सा, भूतिकर्म, इन्द्रजाल विद्या, चौसठ कला, शिल्प, काव्य, गुणदोष, छन्द, क्रिया, क्रियाफलके भोक्ता आदिका विस्तृत विवेचन है। लोकबिन्दुसारमें आठ व्यवहार, चार बीजराशि परिकर्म आदि गणित तथा समस्त श्रुतसम्पत्तिका विवरण है। १३-१४ गणधरदेवके शिष्य प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु-बुद्धिबलवाले प्राणियोंके अनुग्रहके लिए अंगोंके आधारसे रचे गये संक्षिप्त ग्रन्थ अंगबाह्य है। कालिक उत्कालिक आदिके भेदसे अंगबाह्य अनेक प्रकारके हैं। स्वाध्यायकालमें जिनके पठन-पाठनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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