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तत्त्वार्थवातिक
[११२७२९ ६४ धर्म अधर्म आकाशादि अरूपी अतीन्द्रिय पदार्थ भी मानस मतिज्ञानके विषय होते हैं अतः मतिश्रुतमें सर्वद्रव्य विषयता बन जाती है। अवधिज्ञानका विषय
रूपिष्ववधेः ॥२७॥ अवधिज्ञान रूपी पदार्थोंको जानता है।
६१-३ रूप शब्दका स्वभाव भी अर्थ है और चक्षुके द्वारा ग्राह्य शुक्ल आदि गुण भी। पर यहां शुक्ल आदि रूप ही ग्रहण करना चाहिए । 'रूपी' में जो मत्वर्थीय प्रत्यय है उसका 'नित्ययोग' अर्थ लेना चाहिए अर्थात् क्षीरी-सदा दूधवाले वृक्षकी तरह जो द्रव्य सदा रूपवाले हों उन्हें रूपी कहते हैं। उपलक्षणभूत रूपके ग्रहण करनेसे रूपके अविनाभावी रस गन्ध और स्पर्शका भी ग्रहण हो जाता है। अर्थात् रूप रस गन्ध स्पर्शवाले पुद्गल अवधिज्ञानके विषय होते हैं।
४ इस सूत्रमें 'असर्वपर्याय' की अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए । अर्थात् पहिले कहे गए रूपी द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको और जीवके औदयिक औपशमिक और क्षायोपशमिक भावोंको अवधिज्ञान विषय करता है क्योंकि इनमें रूपी कर्मका सम्बन्ध है । वह क्षायिक भाव तथा धर्म अधर्म आदि अरूपी द्रव्योंको नहीं जानता। मनःपर्यय ज्ञानका विषय
तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥२८॥ सर्वावधि ज्ञानके विषयभूत रूपी द्रव्यके सूक्ष्म अनन्तवें भागमें मनःपर्यय ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। केवलज्ञानका विषय
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥२६॥ सभी द्रव्योंकी सभी पर्याएँ केवलज्ञानके विषय हैं।
६१-३ जो स्वतन्त्र कर्ता होकर अपनी पर्यायोंको प्राप्त होता है अथवा अपनी पर्यायोंके द्वारा प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य है । एक ही द्रव्य कर्ता भी होता है कर्म भी, क्योंकि उसका अपनी पर्यायोंसे कथञ्चिद् भेद है। यदि सर्वथा अभेद होता तो एक ही निर्विशेष द्रव्यकी सत्ता रहनेसे कर्ता और कर्म ये विभिन्न व्यवहार नहीं हो सकते ।
६४ स्वाभाविक या नैमित्तिक विरोधी या अविरोधी धर्मों में अमुक शब्द व्यवहारके लिए विवक्षित द्रव्यकी अवस्थाविशेषको पर्याय कहते हैं। जो धर्म द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि निमित्तोंसे होते हैं उन्हें उपात्तहेतुक कहते हैं और जो तीनों कालोंमें अपनी स्वाभाविक सत्ता रखते हैं वे अनुपात्तहेतुक हैं, जैसे जीवके औदयिक आदि भाव और अनादि पारिणामिक चैतन्य आदि। कुछ धर्म अविरोधी होते हैं और कुछ विरोधी, जैसे जीवके अनादि पारिणामिक चैतन्य भव्यत्व या अभव्यत्व ऊर्ध्वगतिस्वभाव अस्तित्वादि एक साथ होनेसे अविरोधी हैं और नारक तिर्यञ्च मनुष्य देव गति स्त्री पुरुष नपुंसकत्व एकेन्द्रियादि जाति बचपन जवानी क्रोध शान्ति आदि एक साथ नहीं हो सकतीं अतः विरोधी हैं। पुद्गलके रूप रसादिसामान्य अचेतनत्व अस्तित्वादि अविरोधी हैं और अमुक
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