________________
३२२ तत्त्वार्थवार्तिक
[ २२२ भाग तक होती है। द्रव्य क्षेत्र और कालकी वृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि संख्यात भागवृद्धि संख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणवृद्धि इन चार प्रकारोंसे होती है। भाववृद्धि अनन्त भागवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि मिलाकर छह प्रकारोंसे होती है । हानि भी इसी क्रमसे होती है।
अंगुलके असंख्यात भाग क्षेत्रवाली अवधिका आवलिका संख्यात भाग काल है, अंगुलके असंख्यात भाग आकाश प्रदेश बराबर द्रव्य है, भाव अनन्त असंख्यात या संख्यात रूप है। अंगुल प्रमाणक्षेत्रवाली अवधिका कुछ कम आवलि प्रमाण काल है, द्रव्य और भाव पहिलेकी तरह । अंगुल पृथक्त्व (तीनसे ऊपर ९ से नोचेकी संख्या) क्षेत्रवाली अवधिका आवली प्रमाण काल है। एक हाथ क्षेत्रवाली अवधिका आवलि पृथक्त्व काल है। एक गव्यूति प्रमाण क्षेत्रवाली अवधिका कुछ अधिक उच्छ्वास प्रमाण काल है। योजनमात्र क्षेत्रवाली अवधिका अन्तर्मुहूर्त काल है। पच्चीस योजन क्षेत्रवाली अवधिका कुछ कम एक दिन काल है। भरतक्षेत्र प्रमाणवाली अवधिका आधा माह काल है। जम्बूद्वीप प्रमाण क्षेत्रवाली अवधिका कुछ अधिक एक माह काल है। मनुष्यलोक प्रमाण क्षेत्रवाली अवधिका एक वर्ष काल है। रुचकद्वीप प्रमाण क्षेत्रवाली अवधिका संवत्सर-पृथक्त्व काल है। संख्यात द्वीप समुद्र प्रमाण क्षेत्रवाली अवधिका संख्यात वर्ष काल है। असंख्यात द्वीप समुद्र प्रमाण क्षेत्रवाली अवधिका असंख्यात वर्ष काल है । इस तरह तिर्य च और मनुष्योंकी मध्य देशावधिक द्रव्यक्षेत्र काल आदि हैं।
तिर्य चोंकी उत्कृष्ट देशावधिका क्षेत्र असंख्यात द्वीपसमुद्र, काल असंख्यात वर्ष और तेजःशरीर प्रमाण द्रव्य है, अर्थात् वह असंख्यात द्वीप समुद्र प्रमाण आकाश प्रदेशोंसे परिमित असंख्यात तेजोद्रव्य वर्गणासे रचे गए अनन्त प्रदेशी स्कन्धोंको जानता है। भाव पहिलेकी तरह है। तिर्य चों और मनुष्योंके जघन्य देशावधि होता है । तिर्य चोंके केवल देशावधि ही होता है परमावधि और सर्वावधि नहीं।
मनुष्योंकी उत्कृष्ट देशावधिका क्षेत्र असंख्यात द्वीप समुद्र, काल असंख्य वर्ष और द्रव्य कार्मण शरीर प्रमाण है अर्थात् वह असंख्यात द्वीपसमुद्र प्रमाण आकाश प्रदेशोंसे परिमित असंख्यात ज्ञानावरणादि कार्मण द्रव्यकी वर्गणाओंको जानता है। भाव पहिले की तरह है। यह उत्कृष्ट देशावधि संयत मनुष्योंके होती है।
परमावधि-जघन्य परमावधिका क्षेत्र एकप्रदेश अधिक लोकप्रमाण, काल असंख्यात वर्ष, द्रव्य प्रदेशाधिक लोकाकाश प्रमाण और भाव अनन्तादि विकल्पवाला है। इसके बाद नाना जीव या एक जीवके क्षेत्रवृद्धि असंख्यात लोकप्रमाण होगी। असंख्यात अर्थात् आवलिकाके असंख्यात भाग प्रमाण । परमावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र अग्निजीवोंकी संख्या प्रमाण लोकालोक प्रमाण असंख्यात लोक । परमावधि उत्कृष्ट चारित्रवाले संयतके ही होती है। यह वर्धमान होती है हीयमान नहीं। अप्रतिपाती होती है प्रतिपाती नहीं। अवस्थित होती है। अनवस्थित भी वृद्धिकी ओर होती है हानिकी ओर नहीं। इस पर्यायमें क्षेत्रान्तरमें साथ जानेसे अनुगामी होती है। परलोकमें नहीं जाती इसलिए अननुगामी भी होती है। चरमशरीरीके होनेके कारण परलोक तक जानेका अवसर ही नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org