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तस्वार्थवार्तिक
[११२१ उस तरह देवनारकियोंको व्रतादिधारणकी आवश्यकता नहीं होती, उनके तो उस पर्यायके कारण ही क्षयोपशम प्रकट हो जाता है। अतः भव बाह्य निमित्त है । सम्यग्ज्ञानका प्रकरण होनेसे मिथ्यादृष्टि देवनारकियोंके मिथ्या अवधि अर्थात् विभंगावधि होती है इसलिए सभी देवनारकियोंको सामान्यरूपसे अवधिज्ञानका प्रसंग नहीं होता।
७ प्रश्न-जीवस्थान आदि आगमोंमें सदादि अनुयोग द्वारोंमें 'नारक' शब्दका ही पहले ग्रहण किया है अतः यहां भी नारक शब्दका ही पहले प्रयोग करना चाहिए ? उत्तर-देव शब्द अल्पस्वर है और पूज्य है, अतः व्याकरणके नियमानुसार देवशब्दका ही पूर्वप्रयोग उचित है । आगममें तो क्रमसे गतियोंका निरूपण है वहां नियमकी अपेक्षा नहीं है, क्योंकि जुदे जुदे वाक्य हैं।
दस प्रकारके भवनवासियोंका अवधिक्षेत्र जघन्य २५ योजन है। उत्कृष्ट असुर कुमारोंका नीचेको ओर असंख्यात कोड़ा-कोड़ी योजन और ऊपर ऋतुविमानके ऊपरी भाग तक है। नागकुमार आदि नव भवनबासियोंका उत्कृष्ट नीचेकी तरफ असंख्यात हजार योजन और ऊपर सुमेरु पर्वतके शिखर तक है तथा तिरछा असंख्यात हजार योजन है। आठों प्रकारके व्यन्तरोंका जघन्य २५ योजन उत्कृष्ट नीचे असंख्यात हजार योजन ऊपर अपने विमानके ऊपरी भाग तक और तिरछे असंख्यात कोड़ा कोड़ी योजन है। ज्योतिषियोंका जघन्य नीचेकी ओर संख्यात योजन उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन, ऊपरकी ओर उत्कृष्ट अपने विमानके ऊपरी भाग तक तथा तिरछे असंख्यात कोड़ा कोड़ी योजन है। वैमानिकोंमें सौधर्म और ईशान स्वर्गवासी देवोंके जघन्य अवधि ज्योतिषियोंके उत्कृष्टक्षेत्र प्रमाण है तथा उत्कृष्ट अवधि नीचेकी ओर रत्नप्रभाके अन्तिम पटल तक है । सानत्कुमार और माहेन्द्र में नीचेकी ओर जघन्य रत्नप्रभाके अन्तिम पटल तक और उत्कृष्ट शर्कराप्रभाके अन्तिम पटल तक अवधिका क्षेत्र है। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव और कापिष्टमें नीचेको ओर जघन्य अवधि शर्करा प्रभाका अन्तिम भाग और उत्कृष्ट वालुका प्रभाका अन्तिम भाग है । शुक्र महाशुक्र शतार और सहस्रारमें नीचेकी ओर जघन्य अवधि वालुका प्रभाका अन्तिम भाग और उत्कृष्ट पंकप्रभाका अन्तिम भाग है। आनत प्राणत आरण और अच्युतमें नीचेकी ओर जघन्य अवधि पंकप्रभाका अन्तिम भाग तथा उत्कृष्ट धूमप्रभाका अन्तिम भाग है। नव ग्रैवेयकोंकी जघन्य अवधि धूमप्रभाका अन्तिमभाग और उत्कृष्ट तमःप्रभाका अन्तिम भाग है। नव अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासियोंकी अवधि लोकनाली पर्यन्त है । सौधर्म आदि अनुत्तर पर्यन्त विमानवासियोंकी अवधि ऊपरकी ओर अपने अपने विमानके ऊपरी भाग तक है। तिरछी असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन है । जिस अवधिज्ञानका जितना क्षेत्र है उतने आकाश प्रदेश प्रमाण काल और द्रव्य होते हैं अर्थात् उतने समय प्रमाण अतीत और अनागतका ज्ञान होता है और उतने भेदवाले अनन्त प्रदेशी पुद्गलस्कन्धोंमें और सकर्मक जीवोंमें ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। भावकी दृष्टिसे अपने विषयभूत पुद्गल स्कन्धोंके रूपादिगुणोंमें और जीवके औदयिक औपशमिक आदि भावोंमें अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है।
नारकी जीवोंमें रत्नप्रभामें अवधिक्षेत्र नीचे एक योजन शर्कराप्रभाग ३॥ गव्यूति बालुका प्रभाग ३ गव्यूति, पंक प्रभाग २॥ गव्यूति, धूम प्रभाग २ गव्यूति, तमःप्रभामें १॥ गव्यूति और महातमः प्रभामें एक गव्यूति है । सभी नरकोंमें ऊपरकी ओर अवधिज्ञान
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