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हिन्दी-सार आदिसे हो जाता है। अतः चक्षु और मनको छोड़कर शेष इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। इनसे प्रथम व्यञ्जनावग्रह होता है बादमें अर्थावग्रह और चक्षु और मनसे सीधा अर्थावग्रह।
३-७ प्रश्न-मन अपने विचारात्मक कार्य में इन्द्रियान्तरकी सहायता की अपेक्षा नहीं करता अतः उसे चक्षुकी तरह इन्द्रिय ही कहना चाहिए अनिन्द्रिय नहीं ? उत्तरभन चक्षुरादि इन्द्रियोंकी तरह दूसरोंको दिखाई नहीं देता, सूक्ष्म है, वह अन्तरंग करण है अतः उसे अनिन्द्रिय कहते हैं । इस अनुमानसे उसका सद्भाव सिद्ध होता है-चक्षु आदि इन्द्रियोंके समर्थ होने पर भी बाह्य रूपादि पदार्थोकी उपस्थिति तथा उनके युगपत् जाननेका प्रयोजन रहने पर जिसके न होनेसे युगपत् ज्ञान और क्रियाएं नहीं होती वही मन है । मन जिस-जिस इन्द्रियको सहायता करता है उसी उसीके द्वारा क्रमशः ज्ञान और क्रिया होती है। जिसके द्वारा देखे या सुने गये पदार्थका स्मरण होता है वह मन है । स्मरणसे मनका सद्भाव सिद्ध होता है। अप्रत्यक्ष पदार्थोंका ज्ञान अनुमानसे ही किया जाता है जैसे सूर्यकी गति और वनस्पतिके वृद्धि और ह्रास का।
६८-९ यद्यपि आत्मा स्वयं समस्त ज्ञान और क्रियाशक्तियोंसे सम्पन्न है फिर भी उसे उन उन ज्ञान आदिके लिए भिन्न भिन्न इन्द्रियोंकी आवश्यकता होती है, जैसे कि अनेक कलाकुशल देवदत्तको चित्र बनाते समय कलम ब्रुश आदि उपकरणोंकी अपेक्षा होती है और अलमारी बनानेके लिए बसूला करोंत आदि उपकरणोंकी। नामकर्मके उदयसे उत्पन्न अङ्ग उपाङ्गोंके कारण इन्द्रियोंका भेद होता है। कान यवनालीके समान, नाक मोतीके समान, जीभ खुरपाके समान, आंख मसूरके समान काले तारेके आकार और स्पर्शनेन्द्रिय सर्वशरीरव्यापी अनेक आकारोंकी है। ये ही इन्द्रियां अपने अपने विषयोंको जानने में समर्थ हैं, अन्य नहीं।
द्रव्यकी दृष्टिसे मतिज्ञानी सभी द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको उपदेशसे जानता है । क्षेत्रकी दृष्टिसे उपदेश द्वारा सभी क्षेत्रोंको जानता है। अथवा, आंखका उत्कृष्ट क्षेत्र ४७२६३२० योजन है । कानका क्षेत्र १२ योजन, नाक, जीभ और स्पर्शनका ९ योजन है। उपदेशसे सभी काल सभी औदयिक आदि भावोंको मतिज्ञानी जान सकता है। सामान्यसे मतिज्ञान एक है। इन्द्रियज और अनिन्द्रियजके भेदसे है प्रकारका है। अवग्रह आदिके भेदसे चार प्रकारका है। अवग्रहादि चार छहों इन्द्रियोंसे होते हैं अतः २४ प्रकारका है। चार इन्द्रियोंसे चार व्यञ्जनावग्रह भी होते हैं अतः मिलकर २८ प्रकारका है। इन्हीं अट्ठाईसमें द्रव्य क्षेत्र काल भाव या अवग्रहादि चारको मिलानेसे ३२ प्रकारका हो जाता है। इस तरह इन २४, २८, ३२ प्रकारोंको बहु आदि ६ भेदोंसे गुणा करने पर क्रमशः १४४, १६८, १९२ भेद हो जाते हैं और बहु आदि १२ से गुणा करने पर २८८, ३३६ और ३८४ ।
व्यञ्जनावग्रहमें भी अव्यक्त रूपसे बहु आदि बारह प्रकारके पदार्थो का ग्रहण होता है । अनिःसृत ग्रहणमें भी जितने सूक्ष्म पुद्गल प्रकट हैं उनसे अतिरिक्तका ज्ञान भी अव्यक्त रूपसे हो जाता है। उन सूक्ष्म पुद्गलोंका इन्द्रियदेशमें आ जाना ही उनका अव्यक्तग्रहण है।
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