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२०१५]
हिन्दी-सार क्योंकि ईहामें पदार्थ विशेषके निर्णयकी ओर झुकाव होता है जब कि संशयमें किसी एक कोटिकी ओर कोई झुकाव नहीं होता। अवग्रहके द्वारा 'पुरुष' ऐसा निश्चय हो जाने पर यह दक्षिणदेशीय है या उत्तर देशीय' यह संशय होता है। इस संशयका उच्छेद करनेके लिए 'दक्षिणी होना चाहिए' इस प्रकारके एककोटिक निर्णयके लिए ईहा होती है । अतः इसे संशय नहीं कह सकते। इसीलिए सूत्रमें संशयका ग्रहण नहीं किया क्योंकि संशयमें किसी अर्थविशेषका ग्रहण नहीं है जब कि ईहामें है।
प्रश्न-अवाय नाम ठीक है या अपाय ? उत्तर-दोनों ठीक है । जब 'दक्षिणी ही है' यह अवाय निश्चय करता है तब 'उत्तरी नहीं है' यह अपाय-त्याग अर्थात् ही हो जाता है। इसी तरह 'उत्तरी नहीं है' इस प्रकार अपाय-त्याग होनेपर 'दक्षिणी है' यह अवाय-निश्चय हो ही जाता है। अतः एकसे दूसरेका ग्रहण हो जानेसे दोनों ठीक है।
प्रश्न-दर्शन और अवग्रहमें क्या अन्तर है ? उत्तर-विषय और विषयीके सन्निपात के बाद चक्षुर्दर्शनावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमके अनुसार प्रथम समयमें जो 'यह कुछ है' इस प्रकारका विशेषशून्य निराकार प्रतिभास होता है वह दर्शन कहलाता है। इसके बाद दो दूसरे तीसरे आदि समयोंमें 'यह रूप है' 'यह पुरुष है' आदि रूपसे विशेषांश का निश्चय अवग्रह कहलाता है। अवग्रहमें चक्षुरिन्द्रिय ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमकी अपेक्षा होती है। जातमात्र बालकके भी इसी क्रमसे दर्शन और अवग्रह होते हैं। यदि बालकके प्रथम समयमें होनेवाले सामान्यालोचनको अवग्रहजातीय ज्ञान कहा जाता है तो वह कौन ज्ञान होगा? बालकके प्रथम समय भावी आलोचनको संशय और विपर्यय तो नहीं कह सकते; क्योंकि ये दोनों सम्यग्ज्ञानपूर्वक होते हैं। जिसने पहिले स्थाणु और पुरुषका सम्यग्ज्ञान किया है उसे ही तद्विषयक संशय और विपर्यय हो सकता है। चूंकि प्रश्न प्राथमिक ज्ञानका है अतः उसे संशय और विपर्यय नहीं कहा जा सकता। अनध्यवसाय भी नहीं कह सकते; क्योंकि जन्मान्ध और जन्मवधिरकी तरह रूपमात्र और शब्दमात्रका स्पष्ट बोध हो ही रहा है। सम्यग्ज्ञान भी नहीं कह सकते; क्योंकि किसी अर्थविशेषके आकारका निश्चय नहीं हुआ है । अवग्रह और दर्शनके उत्पादक कारण-ज्ञानावरणका क्षयोपशम और दर्शनावरणका क्षयोपशम चूंकि जुदे जुदे हैं, अतः दोनों घट-पटकी तरह भिन्न हैं। अवग्रहसे पहिले वस्तुमात्रका सामान्यालोचन रूप दर्शन होता है फिर 'रूप है' यह अवग्रह, फिर 'यह शुक्ल है या कृष्ण' यह संशय, फिर 'शुक्ल होना चाहिए' यह ईहा, फिर 'शुक्ल ही है' यह अवाय, तदनन्तर अवायकी दृढ़तम अवस्था धारणा होती है । ज्ञानावरण कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ असंख्यात लोक प्रमाण हैं जो इस प्रकारके प्रत्येक इन्द्रियजन्य अवग्रहादि ज्ञानोंका आवरण करती हैं। और इनके क्षयोपशमानुसार उक्त ज्ञान प्रकट होते हैं।
प्रश्न-मतिज्ञान तो इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है पर ईहा आदि चूंकि अवग्रह आदिसे उत्पन्न हुए हैं अतः इन्हें मतिज्ञान नहीं कहना चाहिए ? ।
- उत्तर-ईहा आदि मनसे उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञान हैं। यद्यपि श्रुतज्ञान भी अनिन्द्रियजन्य होता है पर ईहा आदिमें परम्परया इन्द्रियजनितता भी है क्योंकि इन्द्रियज अवग्रहके बाद ही ईहादि ज्ञान परम्परा चलती है और तब भी इन्द्रिय व्यापार रुकता नहीं है श्रुतकेवल अनिन्द्रिय जन्य है। इसीलिए ईहा आदिमें चक्षुरादि इन्द्रियजन्यताका भी व्यवहार हो जाता है।
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