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१११] हिन्दी-सार
२९७ में युगपत् पाए जाते हैं अतः दोनोंमें कोई विशेषता न होनेसे दोनोंको एक ही कहना चाहिए ?
उत्तर-साहचर्य तथा एक व्यक्तिमें दोनोंके युगपत् रहनसे ही यह सिद्ध होता है कि दोनों जदे जुदे हैं, क्योंकि दोनों बातें भिन्न सत्तावाले पदार्थों में ही होती हैं। मतिपूर्वक श्रुत होता है, इसलिए दोनोंकी कारण-कार्यरूपसे विशेषता सिद्ध है ही।
"कारणके सदृश ही कार्य होता है, चूंकि श्रुत मतिपूर्वक हुआ है अतः उसे भी मतिरूप ही कहना चाहिए। सम्यग्दर्शन होने पर कुमति और कुश्रुतको युगपत् ज्ञानव्यपदेश प्राप्त होता है, अतः दोनों एक ही कहना चाहिए" यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि जिन कारणसदृशत्व और युगपद्वृत्ति हेतुओंसे आप एकत्व सिद्ध करना चाहते हो उन्हींसे उनमें भिन्नता सिद्ध होती है। सादृश्य और युगपवृत्ति पृथसिद्ध पदार्थोमें ही होते हैं। यद्यपि मति और श्रुतका विषय समान है परन्तु जानने के प्रकार जुदा जुदा हैं। विषय एक होनेसे ज्ञानोंमें एकता नहीं हो सकती, अन्यथा एक घटविषयक दर्शन और स्पर्शनमें भी एकत्व हो जायगा।
६२६-२९ प्रश्न-मति और श्रुत दोनों इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होते हैं, मतिकी तरह श्रुत भी वक्ताकी जिह्वा और श्रोताके कान और मनसे उत्पन्न होता है। अतः एक कारणजन्य होनेसे दोनों एक हैं ? उत्तर-एककारणता असिद्ध है। वक्ताकी जीभ शब्दोस्चारणमें निमित्त होती है न कि ज्ञानमें। श्रोताका कान भी शब्द प्रत्यक्षरूप मतिज्ञानमें निमित्त होता है न कि अर्थशानमें, अतः श्रुतमें इन्द्रिय और मनोनिमित्तता असिद्ध है। शब्द सुनने के बाद जो मनसे ही अर्थशान होता है वह श्रुत है अतः श्रुत अनिन्द्रियनिमित्तक है । यद्यपि ईहादि ज्ञान भी मनोजन्य होते हैं किन्तु वे मात्र अवग्रहके द्वारा गृहीत ही पदार्थको जानते हैं जब कि श्रुतज्ञान अपूर्व पदार्थको भी विषय करता है । एक घड़ेको इन्द्रिय और मनसे जानकर तज्जातीय विभिन्न देशकालवर्ती घटोंके सम्बन्ध जाति आदिका विचार भी श्रुतसे होता है। श्रुतज्ञान मतिके द्वारा एक जीवको जानकर उसके सम्बन्धके सत् संख्या क्षेत्र आदि अनुयोगोंके द्वारा नानाविध विशेषोंको जानता है । 'सुनकर निश्चय करना श्रुत है' यह तो मतिज्ञानका लक्षण है क्योंकि वह भी शब्दको सुनकर 'यह गोशब्द है' ऐसा निश्चय करता ही है। किन्तु श्रुतज्ञान मन और इन्द्रियके द्वारा गृहीत या अगृहीत पर्यायवाले शब्द या उसके वाच्यार्थको श्रोत्रेन्द्रियके व्यापारके बिना ही नय आदि योजना द्वारा विभिन्न विशेषोंके साथ जानता है। मति आदि ज्ञान प्रमाण हैं
. तत्प्रमाणे ॥१०॥ मति आदि पांचों शान प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपसे दो प्रमाणोंमें विभाजित हैं।
६१ प्रमाणशब्द भाव कर्तृ और करण तीनों साधनोंमें निष्पन्न होता है। जब भावकी विवक्षा होती है तो प्रमाको प्रमाण कहते हैं। कर्तृविवक्षामें प्रमातृत्वशक्तिकी मुख्यता होती है और करणविवक्षामें प्रमाता प्रमेय और प्रमाणकी भेदविवक्षा होती है। इनमें विवक्षानुसार अर्थ ग्रहण किया जाता है।
२ प्रश्न-प्रमाणकी सिद्धि स्वतः होती है या प्रमाणान्तर से ? यदि स्वतः, तो प्रमेयकी सिद्धि भी स्वतः होनी चाहिए। यदि अन्य प्रमाणसे, तो प्रमाणान्तरकी अपेक्षा होनेसे
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