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तत्वार्थवार्तिक
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१५६ जिस पुरुषने स्थाणु और पुरुषको पृथक् अनुभव किया हो उसको अन्धकार इन्द्रियदोष आदि स्थाणु में पुरुषभान रूप विपर्यय होता है। जिसने आज तक स्थाणु और पुरुषगत विशेषों को नहीं जाना है उसे विपर्यय हो ही नहीं सकता । इस तरह जब अनादिसे पुरुष और प्रकृतिमें भेदोपलब्धि नहीं हुई तब विपर्यय कैसे हो सकता है ? इसी तरह बौद्धमतमें भी जब पहिले कभी अनित्य अनात्मक अशुचि दुःखरूपसे प्रतीति नहीं हुई तब विपर्यय कैसे हो सकता है ? यदि सांख्य यह कहे कि - हां, पहिले कभी प्रकृति और पुरुषमें भेदोपलब्धि हुई है, तो उसी समय भेदविज्ञानसे मुक्ति हो जाना चाहिए थी, फिर आज बन्ध कैसा ? इसी प्रकार यदि बौद्धको अनित्यादि रूपसे पहिले कभी प्रतीति हुई हो तो उसे भी मोक्ष हो जाना चाहिए था ।
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8५७ जिनके मत में एक ज्ञान एक ही अर्थ को जानता है उनके यहां स्थाणु विषयक ज्ञान स्थाणको ही जानेगा तथा पुरुषविषयक ज्ञान पुरुषको ही । अतः एक ज्ञानका दो अर्थोंको जानना जब संभव ही नहीं है तब न तो संशय हो सकता है और न विपर्यय ही । अतः एकार्थग्राहिज्ञानवादी के मतसे न तो विपर्यय होगा न बंध और न मोक्ष |
8५८-६० शंका- ज्ञान और दर्शन चूंकि एक साथ उत्पन्न होते हैं अत: इन्हें एक ही मानना चाहिए ? समाधान - जिस प्रकार ताप और प्रकाश एक साथ होकर भी दाह और प्रकाशन रूप अपने भिन्न लक्षणोंसे अनेक हैं, उसी तरह तत्त्वज्ञान और तत्त्वश्रद्धानरूप भिन्न लक्षणोंसे ज्ञान और दर्शन भी भिन्न भिन्न हैं । फिर, यह कोई नियम नहीं है कि जो एक साथ उत्पन्न हों वे एक हों । गायके दोनों सींग एक साथ उत्पन्न होते हैं पर अनेक हैं, अतः इस पक्ष में दृष्टविरोध दोष आता है । जैनदर्शन में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयोंसे वस्तुका विवेचन किया जाता है । अतः द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानता और पर्यायार्थिक नयकी गौणता करनेपर ज्ञान और दर्शन में एकत्व भी है । जैसे परमाणु आदि पुद्गलद्रव्यों में बाघ और आभ्यन्तर कारणों से एक साथ रूपरसादि परिणमन होता है फिर भी रूप रस आदिमें परस्पर एकत्व नहीं है उसी तरह ज्ञान और दर्शन में भी समझना चाहिए । अथवा, जैसे अनादि पारिणामिक पुद्गलद्रव्यकी विवक्षामें द्रव्यार्थिकनयकी प्रधानता और पर्यायार्थिकनयकी गौणता रहनेपर रूप रस आदिमें एकत्व है क्योंकि वही द्रव्य रूप है और वही द्रव्य रस, उसी तरह अनादिपारिणामिक चैतन्यमय जीवद्रव्यकी विवक्षा रहनेपर ज्ञान और दर्शनमें अभेद है क्योंकि वही आत्मद्रव्य ज्ञानरूप होता है तथा वही आत्मद्रव्य दर्शनरूप । जब हम उन उन पर्यायोंकी विवक्षा करते हैं तब ज्ञानपर्याय भिन्न है तथा दर्शन पर्याय भिन्न ।
१६१-६४ प्रश्न - ज्ञान और चारित्रमें कालभेद नहीं है अतः दोनोंको एक ही मानना चाहिए। किसी व्यभिचारी पुरुषने अंधेरी रातमें मार्ग में जाती हुई अपनी व्यभि - चारिणी माताको ही छेड़ दिया । इसी समय बिजली चमकी । उस समय जैसे ही उसे यह ज्ञान हुआ कि यह 'मां' है वैसे ही तुरंत वह अगम्यागमनसे निवृत्त हो जाता है, इसी तरह जैसे ही इस जीवको यह सम्यग्ज्ञान होता है कि जीवहिंसा नहीं करनी चाहिए वैसे ही वह हिसा से निवृत्त हो जाता है । अतः ज्ञान और चारित्रमें कालभेद नहीं है और इसीलिए इन्हें एक मानना चाहिए । उत्तर- जिस प्रकार सुईसे ऊपर नीचे रखे हुए १०० कमलपत्रोंको एक साथ छेदने पर सूक्ष्म कालभेदकी प्रतीति नहीं होती यद्यपि वहां कालभेद है उसी तरह ज्ञान और चारित्रमें भी सूक्ष्म कालभेदका भान नहीं हो पाता, कारण काल अत्यन्त सूक्ष्म है ।
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