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तत्त्वार्थवार्तिक
[१९ ६५ प्रश्न-आगममें 'मनसा मनः संपरिचिन्त्य-अर्थात् मनके द्वारा मनको विचारकर' ऐसा कथन है अतः मनोनिमित्त होनेसे इसे मानस मतिज्ञान कहना चाहिए ?
उत्तर-जैसे आकाशमें चन्द्रको देखनेमें आकाशकी साधारण अपेक्षा होती है उसी तरह मनःपर्यय ज्ञानमें मन अपेक्षा मात्र है जैसे मन मतिज्ञानमें कारण होता है उस तरह यहां कारण नहीं है क्योंकि मनःपर्ययमात्र आत्मविशुद्धिजन्य है।
६-७ जिसके लिए बाह्य और आभ्यन्तर विविध प्रकारके तप तपे जाते हैं वह लक्ष्यभूत केवलज्ञान है । जैसे 'केवल अन्न खाता है' यहां केवल शब्द असहाय अर्थमें है अर्थात् असहाय शाक आदि रहित अन्न खाता है उसी तरह केवल अर्थात् क्षायोपशमिक आदि ज्ञानोंकी सहायतासे रहित असहाय केवल ज्ञान है। यह रूढ़ शब्द है ।
६८-९ जैनमतमें जिस प्रकार ज्ञान करण आदि साधनोंमें निष्पन्न होता है अन्य एकान्तवादियोंके यहां ज्ञानकी करणादि साधनता नहीं बन सकती।
१० जो बौद्ध आत्माका ही अस्तित्व नहीं मानते उनके यहां कर्ताका अभाव होनेसे ज्ञानमें 'ज्ञायते अनेन' यह करण प्रयोग नहीं हो सकता। फरसेके प्रयोग करनेवाले देवदत्तके रहनेपर ही फरसा छेदन क्रियाका करण कहा जा सकता है। इसी तरह 'ज्ञातिनिम्' यह भाव साधन भी नहीं बन सकता; क्योंकि भाववान्के अभावमें भावकी सत्ता नहीं रह सकती। 'जानातीति ज्ञानम्' इस तरह ज्ञानको कर्तृसाधन कहना भी उचित नहीं हैं क्योंकि जब सभी पदार्थ निरीह हैं एक दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखते तब निरीह पदार्थ कर्ता कैसे बन सकता है ? फिर, पूर्व और उत्तर पर्यायकी अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ कर्ता होता है । क्षणिक ज्ञान तो पूर्वोत्तरकी अपेक्षा नहीं रखता अतः निरपेक्ष होनेके कारण कर्ता नहीं बन सकता । संसारमें करणके व्यापारकी अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ कर्ता होता है, पर ज्ञानके लिए कोई अन्य करण तो है ही नहीं अतः वह कर्ता नहीं बन सकता । स्वशक्तिको करण कहना तो उचित नहीं है। क्योंकि शक्ति और शक्तिमान में भेद माननेपर शक्तिमान्की जगह आत्माका अस्तित्व सिद्ध हो जायगा। अभेद माननेपर तो वही कर्तत्वाभाव नामक दोष आता है। सन्तानकी अपेक्षा पूर्व क्षणको कर्ता और उत्तर क्षणको करण मानकर व्यवस्था बनाना भी उचित नहीं है; क्योंकि सन्तान यदि परमार्थ है, तो आत्माकी सिद्धि हो जाती है। यदि मिथ्या है; तो मृषावाद हो जायगा । सन्तान यदि क्षणोंसे भिन्न है; तो उन क्षणोंसे कोई वास्तविक सम्बन्ध न होनेके कारण वह 'उनकी' सन्तान नहीं कही जा सकती। यदि अभिन्न है तो क्षणोंकी तरह परस्पर निरन्वय रहनेके कारण पूर्वोक्त दोष बने रहेंगे। मन रूप इन्द्रियको करण कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि उसमें वह शवित ही नहीं है। "छहों ज्ञानोंके लिए एक क्षण पूर्वका ज्ञान मन होता है" यह उनका सिद्धान्त है । इसीलिए अतीतज्ञान रूप मन इन्द्रिय भी नहीं हो सकता। जो ज्ञान उत्पन्न हो रहा है तत्समकालीनको भी करण नहीं कह सकते ; क्योंकि समसमयवालोंमें कार्य कारण व्यवहार नहीं बन सकता जैसे कि एक साथ उत्पन्न होनेवाले दाएं बाएं दो सी गोंमें परस्पर । ज्ञानमें 'ज्ञा-जानना' इस प्रकृतिको छोड़कर अन्य कोई अंश तो है नहीं जो 'जाननेवाला' बनकर कर्ता हो सके। क्षणिकवादीके मतमें कर्तृत्व जब एक क्षणवर्ती है तब वह अनेक क्षणवर्ती 'कर्तृ' शब्दसे कहा ही कैसे जायगा ? 'कर्तृ' शब्द भी जब एकक्षणवर्ती नहीं है तब वाचक कैसे बन सकता है ? सन्तानकी दृष्टिसे वाच्यवाचक सम्बन्ध बनाना भी समुचित
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