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हिन्दी-सार आदि सम्यग्दर्शन सीधे आत्मस्वरूप ही हैं। सम्यक्त्व प्रकृति तो पुद्गलकी पर्याय है। यद्यपि उत्पत्ति स्व और पर उभय निमित्तोंसे होती है फिर भी पर पदार्थ तो उपकरणमात्र हैं, साधारण निमित्त हैं। वस्तुतः मिट्टी ही घड़ा बनती है, दण्ड आदि तो साधारण उपकरण हैं, बायसाधन हैं। इसी तरह सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें भी आत्मपरिणमन ही मुख्य है। इस दर्शनमोह नामक कर्मको आत्मविशुद्धिके द्वारा ही रसघात करके स्वल्पघाती क्षीणशक्तिक सम्यक्त्व कर्म बनाया जाता है। अतः यह सम्यक्त्व प्रकृति आत्मस्वरूप मोक्षका प्रधान कारण नहीं हो सकती। आत्मा ही अपनी शक्तिसे दर्शन पर्यायको धारण करता है अतः वही मोक्षका कारण है। आत्माकी आन्तरिक सम्यग्दर्शन पर्याय अहेय होती है जब कि सम्यक्त्व प्रकृति हेय । इस सम्यक्त्व प्रकृतिका नाश करके ही क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। अतः आभ्यन्तर स्वशक्तिरूप ही सम्यग्दर्शन हो सकता है सम्यक्त्व कर्मपुद्गलरूप नहीं। आभ्यन्तर परिणमन ही प्रधान होता है, वही प्रत्यासन्न कारण होता है और उसी रूपसे आत्मा परिणति करता है अतः अहेय होनेसे प्रधान और प्रत्यासन्न कारण होनेसे आत्मपरिणामरूप सम्यग्दर्शन ही मोक्षका कारण हो सकता है न कि कर्मपुद्गल । अल्पबहुत्वका विवेचन भी उपशम सम्यग्दर्शन आदि आत्मपरिणामके आधारसे किया जा सकता है, उसके लिएभी कर्मपुद्गलकी कोई आवश्यकता नहीं है। सबसे कम उपशम सम्यग्दृष्टि हैं, क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणें और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणें हैं। सिद्ध क्षायिक सम्यग्दृष्टि अनन्तगुणें होते हैं । अतः आत्मपरिणामरूप सम्यग्दर्शन ही मोक्षका साक्षात् कारण हो सकता है।
१७-२१ प्रश्न-अर्थश्रद्धानको ही सम्यग्दर्शन कहना चाहिए, यहां 'तत्त्व' पदव्यर्थ है। इससे सूत्रमें भी लघुता आयगी? उत्तर-यदि तत्त्व पद न दिया जाय सभी अर्थोके श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन हो जायगा। मिथ्यावादिप्रणीत अर्थ भी उनके द्वारा जाने तो जाते ही हैं पर वे तत्त्व नहीं हैं । अर्थ शब्दके अनेक अर्थ हैं, अतः सन्देह भी होगा कि किस अर्थक श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा जाय ? वैशेषिक शास्त्रमें द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन पदार्थोकी अर्थ संज्ञा है । 'आप यहां किस अर्थसे आए' यहां अर्थ शब्दका प्रयोजन अर्थ है। 'अर्थवान् देवदत्तः' में अर्थवान्का अर्थ धनवान् है । 'शब्दार्थसम्बन्ध' में अर्थका तात्पर्य अभिधेय है। इस तरह अर्थ शब्दके अनेक अर्थ होते हैं। यह तर्क तो अनुचित है कि-'सभी अर्थोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन माननेपर सभीका अनुग्रह हो जायगा, आपको सर्वानुग्रहसे द्वेष क्यों है'; क्योंकि असत् अर्थोंका श्रद्धान सम्यग्दर्शन नाम नहीं पा सकता, अतः सर्वानुग्रहके विचार से ही सन्मार्ग प्रदर्शन बुद्धिसे अर्थके साथ 'तत्त्व' विशेषण लगा दिया है जिससे लोग असदोंमें न भटक जांय । यद्यपि 'अर्यते इति अर्थः' अर्थात् जो जाना जाय वह अर्थ, इस व्युत्पत्तिके अनुसार मिथ्यावादिप्रणीत अर्थ तो ज्ञेय हो ही नहीं सकते क्योंकि वे अविद्यमान हैं अतः अर्थपदका इतना विशिष्ट अर्थ करके ही तत्त्व पदका कार्य चलाया जा सकता है किन्तु मिथ्यात्व के उदयमें इस आत्माको अस्ति नास्ति नित्य अनित्य आदि एकान्तोंमें मिथ्या अर्थबुद्धि होने लगती है, जैसे कि पित्तज्वर वाले को मधुर रस भी कटुक मालूम होता है। अतः इन एकान्त अर्थोका निराकरण करने के लिए 'तत्त्व' पद दिया ही जाना चाहिए।
२२-२५ यद्यपि 'तत्त्व ही अर्थ है' यह विग्रह करनेपर तत्त्वके कहनेसे कार्य चल जाता है फिर भी अर्थ पदका ग्रहण निर्दोष प्रतिपत्तिके लिए किया गया है। यथा-यदि 'तत्त्व है' इस श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा जाय, तो एकान्तवादियोंको भी 'नास्ति आत्मा' इत्यादि
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